(संजय चौबे नई सदी में उभरे उन कुछ तेजस्वी लेखकों में शुमार हैं, जो अपने समय के सवालों से बचने की कोशिश नहीं करते। साहस के साथ अपनी रचना में उन सवालों से जूझने व उनके सही उत्तर की तलाश की कोशिश करते हैं। उनके अब तक दो उपन्यास, दो निबंध संग्रह और एक कविता संग्रह, कुल पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी पाँचों कृतियों को पाठकों ने हाथोहाथ लिया है। उनके कई संस्करण निकले हैं और उन कृतियों की ओर समय-समय पर प्रमुख लेखकों का ध्यान भी आकृष्ट हुआ है। हमारे समाज व राजनीति में सत्ता और शक्ति की जो लड़ाइयाँ हैं, वे किस तरह अनेक बहानों व बहुविध चतुराइयों के साथ बहुत क्रूरतापूर्वक मनुष्य-मनुष्य के बीच गहरी खाइयों को बनाने और उनमें सीधे, वंचित व निरीह जनों को ढकेल कर उनकी बलि लेने की कोशिश करती हैं, उसकी स्पष्ट पहचान व व्याख्या संजय चौबे की कृतियों में प्रमुखता से मिलती है। संजय चौबे ने अपने दोनों उपन्यासों ‘9 नवंबर’ और ‘बेतरतीब पन्ने’ में भारतीय समाज की धार्मिक व सामाजिक जकड़बंदियों के सवालों को प्रमुखता से उठाया है। धर्म के नाम पर पैदा किये जाने वाले सुनियोजित उन्माद किस तरह साधारण, वंचित व निरीह लोगों की खून की नदियाँ बहा देते हैं और उसका फ़ायदा प्रभु वर्ग किस तरह बख़ूबी उठाता है, इस हक़ीकत को इन उपन्यासों में परत-दर-परत उधेड़ कर रख दिया गया है। धर्म के साथ जाति भी सदियों से आम लोगों के साथ छल एवं उनके शोषण का एक प्रमुख औजार रही है। इसकी जड़ें समाज में कितनी गहरी चली गई हैं, इसको भी उपन्यासकार ने रेखांकित करने का प्रयास किया है। नया फिनोमेना यह है कि ‘देश’ और ‘सेना’ के नाम पर भावुकता ज्वार खड़ा करके भी लोगों का आखेट किया जा रहा है। इसकी आड़ में व्यक्तिगत व सामाजिक ज़िंदगी के बुनियादी सवालों को ढँका जा रहा है। उपन्यासकार ने इस क्रूर सच को भी अपने उपन्यासों में बेपर्द किया है। पिछले तीस-चालीस सालों में जिन पाखंडों और क्रूरताओं के द्वारा देश व समाज को पीछे ढकेलने व उसे रक्तरंजित करने का कुचक्र जारी है, संजय चौबे अपनी कृतियों में उनसे टकराते हैं। केवल आख्यानपरक गद्य में ही नहीं बल्कि अपने सीधे-सीधे बेबाक ढंग से लिखे गये लेखों में भी। उनके दोनों निबंध संग्रहों के नाम ही अपने आप में अभिव्यंजक व तिलमिला देने वाले पदबंध हैं – ‘वह नारी है…’ और ‘भीड़-भारत’! अपने नाम से ही ये दोनों पुस्तकें हमारे समाज की उस प्रवृत्ति को इंगित करती हैं, जिसने अपना विवेक खो दिया है; जहाँ व्यक्ति ऐसे समूह में बदल गया है, जो ख़ुद की कोई स्वतंत्र चेतना व संवेदना नहीं रखता। व्यक्ति जब भीड़ का हिस्सा हो जाता है, तो वह अपने विवेक से सही-ग़लत का फ़ैसला नहीं ले पाता, वह रूढ़िगत उन्माद का शिकार हो जाता है। कहना नहीं होगा कि यह महामारी बढ़ती ही जा रही है। इसके शिकार समाज व परिवार में स्त्रियाँ, बच्चे, नौजवान, वंचित सामाजिक समूह व गरीब लोग हो रहे हैं। उनके जीवन की कीमत पर ही वर्चस्व के महल खड़े हो रहे हैं। भावुकता व उन्माद की आँधी इतनी तेज़ है कि जिनका आखेट किया जा रहा है, उनकी आँखों में भी धूल भर गई है और वे अपने आखेटकों के पक्ष में ही बहे जा रहे हैं। संजय चौबे अपनी कृतियों में इस बात को बारंबार रेखांकित करते हैं। इससे सचेत करते हैं।)
आप अपने बचपन के बारे में थोड़ा-सा बताएं कि किस तरह का पारिवारिक-सामाजिक माहौल मिला, शिक्षा-दीक्षा किस तरह हुई?
ज़मीन के छोटे-से टुकड़े पर एवं स्मृतियों में बसे एक मु़काम का नाम है, टीकाचक। मैं उसी टीकाचक के एक खेतिहर परिवार में जन्मा था; वहीं जीवन के महत्वपूर्ण काल को जिया था। विकास के जो बुनियादी पैमाने हमने तय कर रखे हैं, टीकाचक तब उनसे पूर्णतया वंचित था; कुछ बेहतर होने के बावजूद आज भी वैसा ही है। सड़क, बिजली, डॉक्टर, हाट-बाज़ार, स्कूल, डाकख़ाना, पुलिस चौकी, रेडियो, घड़ी की बात रहने दें; नून-तेल व दियासलाई की दुकान भी कम से कम कोस-भर दूर थी। बा़की का ख़याल तो कोसों और सालों दूर था। टीकाचक के भूगोल में थे कुल जमा दो कुआँ, एक पोखर, एक बगीचा, पक्की सड़क तक जाती चिकनी पगडंडी व ऊबड़-खाबड़ कच्ची सड़क और पंद्रह-बीस परिवारों का घर। लोगों के बीच स्थायी तौर पर बसता था- जात-पात, छुआछूत, अंधविश्वास, निरक्षरता, निर्धनता, बीमारी। बावजूद इन सबके, जैसे-जैसे समझ बढ़ी टीकाचक के छूटने के बाद, टीकाचक को याद करना अच्छा लगने लगा और आजकल अक्सर तथाकथित मॉडर्न व अंग्रेज़ीदाँ लोगों से भरी पड़ी कॉलोनियों, मुहल्लों के मु़क़ाबले उस देहात को बेहतर कहने लगता हूँ। जब ऐसा करता हूँ तो होश स्वयं को चेक करने, चीज़ों को तर्क एवं तथ्य की कसौटी पर जाँचने-परखने की सलाह देता है। होश मुझ पर नॉस्टैल्जिया से ग्रस्त होने, अतीत के प्रति रूमानी होने का आरोप लगाता है; लेकिन पूरे होशो-हवास में गंभीरता से विचार करने पर भी टीकाचक के प्रति मेरी धारणा नहीं बदल पाती। इसके कुछ पु़ख्ता कारण हैं। अंधविश्वास एवं निरक्षरता के बावजूद वहाँ सवाल-जवाब करने, मुझे खुलकर बहस करने की आज़ादी थी। कुछ भी इतना सैक्रोसैंक्ट (sacrosanct), इतना पवित्र नहीं था कि उस पर चर्चा न की जा सके, उसकी समीक्षा न की जा सके; वहाँ तब धर्म, धर्मग्रंथ अथवा ईश्वर इतना कमज़ोर नहीं हुआ करता था कि हमारी चर्चा, हमारे सवालों से वह भ्रष्ट अथवा अपवित्र हो जाए। लोगों को लाठी लेकर धर्म की रक्षा हेतु किसी को मारना नहीं पड़ता था।
सवाल-जवाब करने की असीमित आज़ादी थी; इसीलिए जीवन के शुरुआती दिनों में ही जीवन के कंट्राडिक्शन व अंतर्विरोध समझ में आने लगे थे। ऊँच-नीच के भाव व छुआछूत स्थापित व्यवस्था के अंग थे; परिवार में पितृसत्ता थी और स्त्रियों के लिए तमाम क़ायदे-क़ानून थे लेकिन इतना स्पष्ट था कि इन सबको ताकत धार्मिक मान्यताओं से मिल रही थी। धर्म ही इन सबके पीछे खड़ा था। पारिवारिक माहौल में बहस करने की आज़ादी थी और सुदूर देहात होने के बावज़ूद घर में किताबों, पत्र-पत्रिकाएं व गीता प्रेस से छपने वाले तमाम धर्मग्रंथों की पर्याप्त उपलब्धता थी। ऐसे में सबसे पहले धर्मग्रंथों से वास्ता पड़ा और यहीं से आँखों में देखने की क्षमता का विकास हुआ। लोगों की ज़बान से ईश्वर, ईश्वर के अवतारों एवं देवी-देवताओं के बारे में सुनता था, लेकिन धर्मग्रंथों में जब उनके बारे में लिखी बातों को पढ़ने लगा, तो बात एकदम पलटती चली गई। लोग देवताओं के आदर्श, उनकी महिमा का ज़िक्र करते थे; लेकिन धर्मग्रंथों के पन्ने ईश्वर व उनके अवतारों के छल-कपट, झूठ, उनकी कमजोरियाँ, स्त्री व राज-पाट जीतने हेतु अपनाई जाने वाली तमाम तरह की अनैतिकता आदि को साफ़ बयाँ करते। उस अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि दुनियाभर के धर्मग्रंथों को ज्यों का त्यों आज की सरल भाषा में उनके अनुयाइयों को पढ़ने के लिए उपलब्ध करा दिया जाए और वे सारे अनुयायी यदि अपने धर्मग्रंथों को ज्यों का त्यों समझते हुए पढ़ लें तो धर्म के नाम पर चलने वाले तमाम अधर्म, अनैतिक अथवा अधार्मिक कृत्य बंद हो जाएंगे। शायद इसीलिए धर्मग्रंथों को उनकी पुरातन एवं कठिन भाषाओं में बग़ैर समझे-बूझे बस मंत्र अथवा प्रार्थना के रूप में कण्ठस्थ करने पर ज़ोर दिया जाता है।
ख़ैर बात टीकाचक की चल रही थी, यक़ीनन जिस टीकाचक की बात मैं कर रहा हूँ, वह अब शायद ज़मीन पर नहीं, एहसासों में है। टीकाचक के एहसास ने ही मेरे अंदर पढ़ने-लिखने की ज़मीन तैयार की। देख पाने व मेरे अंदर उन तकलीफ़ों, दर्दों से गुज़रने की क्षमता का विकास किया, जिन्हें झेलने की मेरी कोई मज़बूरी नहीं। लोग अक्सर भोगे हुए यथार्थ की बात करते हैं। भोगा हुआ यथार्थ, समझ व संवेदनाओं की तरलता से ही एहसास में उतरता है; तो किसी ख़ास तरह की पीड़ा से गुज़रने की कोई मजबूरी न होने के बावज़ूद जब कोई घटना, कोई बात आपको बेचैन करने लगे, आपका चैन ख़त्म कर दे, तो असल में आप भी दर्द भोगने के लिए मजबूर हो गए। थप्पड़ खाने से एक शारीरिक पीड़ा उपजती है, कुछ देर बाद यह शारीरिक पीड़ा ख़त्म हो जाती है; डॉक्टर की दवा से यह पीड़ा पूरे तौर पर समाप्त हो जाती है, फिर भी महीनों-सालों बाद गाहे-ब-गाहे उस थप्पड़ के कारण आपकी नींद उचट जाए, तो यह भी एक यथार्थ है, जिसे भोगा जा रहा है। ऐसे ही आवश्यक नहीं कि वह थप्पड़ आपने ही खाया हो। हो सकता है, थप्पड़ किसी और को पड़ा हो और यह भी संभव है कि थप्पड़ की पीड़ा से वह कब का मुक्त हो चुका हो क्योंकि समझ व संवेदना की जिस वांछित तरलता की बात मैं कर रहा था, इसका उसमें सर्वथा अभाव हो, तो टीकाचक का भोगा हुआ यथार्थ आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। वह गाहे-ब-गाहे काग़ज़ पर अपनी ज़मीन तलाशने लगता है।
साहित्य से जुड़ाव किस तरह हुआ? शुरुआत में आप किन पुस्तकों व रचनाओं से प्रभावित हुए?
जैसा पहले बता रहा था, शुरुआत रामचरितमानस एवं महाभारत से हुई थी। इनकी कथाएं बड़ी रोचक लगती थीं और लंबी अवधि तक दिमाग में घूमती रहती थीं। मुझे याद है बचपन में कर्ण व एकलव्य की कथा बहुत दिनों तक हॉन्ट् करती रही थी; रामचरितमानस के तमाम प्रसंगों पर हम लंबी बहस किया करते थे। बाद में बाल पत्रिकाओं, बाल उपन्यासों से वास्ता पड़ा। बड़ा-सा परिवार था। बड़े भाई-बहन भागलपुर में पढ़ते थे और उनकी पढ़ाई की एक विशेष बात थी कि कोर्स की पढ़ाई के बाहर की कितनी किताबें किसने पढ़ीं, आपस में मुक़ाबला इसी बात का रहता था। मेरी माँ कभी स्कूल नहीं गईं, घर पर ही लिखने-पढ़ने भर का ज्ञान अर्जित किया था; लेकिन वे उपन्यास आदि ख़ूब पढ़ती थीं। इस पूरे माहौल का असर मुझ पर पड़ा होगा। आज के बच्चों की तरह नियमित ‘पॉकेट-मनी’ मिलने का कोई चलन नहीं था, लेकिन अतिथियों, रिश्तेदारों के आने-जाने पर कभी-कभार जो कुछ पैसे मिलते थे, उन्हें इकट्ठा कर खिलौने नहीं, किताब ख़रीदने की आदत पड़ गई। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि कब और कैसे किताबों को इकट्ठा करना मुझे अच्छा लगने लगा। टीकाचक से लगभग तीन कोस की दूरी पर झारखण्ड के गोड्डा जिले में महागामा गांव स्थित है। आज महागामा शहर न होते हुए भी शहर जैसा हो गया है; बचपन में भी यह एक बड़ा-सा गांव हुआ करता था, जहाँ अन्य सुख-सुविधाओं के अतिरिक्त हाई स्कूल तक पढ़ने की व्यवस्था थी। इस बड़े-से गांव में अपना एक घर था। बचपन में, नासमझी के उस दौर में अपने हमउम्र बच्चों से शेखी बघारते हुए मैं कहा करता था कि मेरे पास एक ऐसा पुस्तकालय होगा, जो टीकाचक से महागामा तक फैला होगा और उसमें दुनिया की सारी किताबें होंगी। ख़ैर हाई स्कूल से निकलने तक प्रेमचंद, रेणु, निराला, शरत बाबू, बिमल मित्र, निर्मल वर्मा, अमृता प्रीतम आदि को पढ़ चुका था। इंटरमीडियट की पढ़ाई के लिए पटना जाने से पूर्व रेणु व अमृता प्रीतम के शब्द चेतन-अवचेतन में गूँजते रहते। रेणु का ‘मैला आँचल’, ‘परती परिकथा’, शरत बाबू का ‘देवदास’ व बिमल मित्र का ‘साहब बीबी गुलाम’ बहुत दिनों तक दिलोदिमाग पर छाया रहा था।
इसी के साथ आपको बताऊँ, घर में जब मैं होश संभाल रहा था और लिखने-पढ़ने के सपने देखा करता था, तब घर में ज्ञानेन्द्रपति जी को लेकर तमाम तरह की कहानियाँ सुनता रहता था कि साहित्य के प्रेम में आदमी क्या से क्या हो जाता है, वह शादी नहीं करता है; अच्छी-ख़ासी अफ़सरी छोड़कर, घर-बार छोड़कर कहीं दूर काशी या कि बनारस चला जाता है। इन सारी बातों में एक ग़ज़ब की कशिश थी। वे एक मिथकीय चरित्र से लगते, जिनके बारे में सि़र्फ़ चर्चा की जा सकती थी, जो केवल क़िस्से-कहानियों में हो सकते थे। इस तरह से मैं ज्ञानेन्द्रपति जी से एक अलग तरीके से प्रभावित रहा।
आपने लेखन की शुरुआत कविताओं से की, तो आपके पसंदीदा कवि कौन-कौन से रहे, उनका क्या असर आप पर पड़ा?
लेखन की शुरुआत कविताओं से की, पक्के तौर पर यह नहीं कह सकता। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि सबसे पहले कविता लिखी थी या कोई कहानी। शुरुआत एवं छात्र जीवन में कविता और कहानी जैसा कुछ लेकिन दोनों विधा में लिखता था। हाँ, धीरे-धीरे कहानियाँ पीछे छूटती चली गईं और उनकी जगह काग़ज़ पर कविताएं अधिक उतरने लगीं। चूँकि सबसे पहले एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था और मेरी एक भी कहानी आज तक कहीं से भी प्रकाशित नहीं हो पाई। इसलिए ऐसी धारणा बन गई कि मेरी यात्रा कविताओं के साथ शुरू हुई। कहानियाँ एक पुरानी फ़ाइल में बंद पडी हैं और मैं इतना साहस नहीं जुटा पाता हूँ कि मैं उस फ़ाइल को कभी खोलूँ और उन कहानियों को पलट कर देख सकूँ, न जाने क्या लिक्खा होगा। ख़ैर… कविताएं पढ़ता हूँ, अच्छी लगती हैं। पसंदीदा कवियों की सूची लंबी है।
कविता लिखना आपने अचानक बंद क्यों कर दिया? कविता से उपन्यास की तरफ़ कैसे आना हुआ?
दिसंबर 2012 में काग़ज़ पर आख़िरी बार कविता उतरी थी। 2013 के मार्च में एक संग्रह (‘अवसान निकट है’) प्रकाशित हुआ, जिसके दूसरे संस्करण को रश्मि प्रकाशन ने 2021 में प्रकाशित किया था। इस संग्रह के प्रकाशन से पूर्व अनायास ही कविता रचने बैठ जाता था। कविता कहीं भी, कभी भी अपने सूत्र दे जाती थी। 2013 में कुछ ऐसा संयोग बना कि कविता पहले की तरह मौ़क़े-बे-मौ़क़े टकराती तो थी, मैं उससे मिलने का वायदा भी करता, मिल-बैठकर काग़ज़ या कि कंप्यूटर पर उसे शब्दों में ढालने के बारे में सोचा भी करता; लेकिन आलस्य कहें या लगातार टालते रहने की प्रवृत्ति कि 2013 में दस-ग्यारह महीने मैं कुछ भी नहीं लिख पाया। यहीं एक और बात कि 2013 से पूर्व एक भी स्थापित साहित्यकार से मेरी न तो मुलाक़ात हुई थी, न किसी तरह का पत्राचार, न टेलीफोन आदि पर बातचीत। मैं कभी भी उनसे मिलने अथवा बात करने का साहस नहीं जुटा पाया था; यहाँ तक कि उन रचनाकारों/संपादकों को उनकी प्रशंसा के दो शब्द लिखने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाया, जबकि मैं सालों उन्हें फॉलो करता रहा, उनका फैन रहा। मेरी यह झिझक आज भी बरक़रार है। मैं आज भी साहित्यकारों, रचनाकारों से ठीक ढंग से संवाद नहीं कर पाता। उनकी किताबें पढ़ता हूँ, पढ़कर अभिभूत हो उठता हूँ लेकिन उन्हें कॉल करके अपनी भावना व्यक्त नहीं कर पाता कि ‘‘सर अथवा मैम, आपने क्या कमाल का लिखा है।’’ ख़ैर मार्च 2013 में हिम्मत जुटाकर हिंदी के पंद्रह-बीस साहित्यकारों/संपादकों को अपना कविता संग्रह भेजा, साथ में एक अनुरोध कि मेरी कविताओं पर यदि आपकी राय मिल जाए तो वह मेरे लिए अनमोल होगी। अनमोल चीज़ें कहाँ मिलती हैं भला; न तो चिट्ठी, न कोई कॉल, कोई एस. एम. एस. इस बात का भी नहीं कि उन्हें किताब मिल गई है। बात आई-गई हो गई। कई महीने बाद एक शाम जब मैं अपने चंद मित्रों के साथ गप्पबाज़ी में लिप्त था, मोबाइल की घंटी बजी। एक अनजान नंबर से फोन था। इस फोन का आना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, अच्छी-ख़ासी बैठकी में ख़लल का एहसास हुआ। कुछ देर की ऊहापोह कि फोन उठाऊँ या नहीं के बाद अंतत: फोन उठा लिया। उधर से आवाज़ आई, ‘‘मैं ज्ञानेन्द्रपति बोल रहा हूँ!’’
अपने बचपन के दौर का ज़िक्र करते हुए आपको बता चुका हूँ कि ज्ञानेन्द्रपति जी हमारे लिए किस तरह एक मिथकीय चरित्र से हुआ करते थे, जिनके बारे में सि़र्फ़ चर्चा की जा सकती थी, जो केवल क़िस्से-कहानियों में हो सकते थे। ऐसे में उनका हाड़-मांस का शरीर धारण करना और फोन करना; मैं थोड़ी देर स्तब्ध रहा। वे क्या बोल रहे थे, कुछ समझ में नहीं आया। थोड़ी देर बाद जब होश संभला तब पता लगा, वे कह रहें हैं कि कविता संग्रह उन्हें का़फी पहले मिल गया था लेकिन वे देख नहीं पाए थे आदि-आदि। मैं ‘जी-जी…’ कर रहा था। उसी समय संभले होश ने मुझे समझाया कि उन्होंने मेरा दिल रखने के लिए, हौसला अफ़ज़ाई के लिए फोन कर दिया होगा; उन्होंने बस किताब देखी होगी, पलटा भी नहीं होगा, कविताओं के पढ़ने की बात क्या। तभी सुनाई पड़ा, वे मेरी कुछ कविताओं का ज़िक्र कर रहे हैं। थोड़ी तसल्ली हुई, चलो कुछ कविताएं पढ़ी हैं उन्होंने। बातचीत ख़त्म हो गई। मैं बहुत देर तक नशे में रहा, मुझे लगा मैं एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हूँ, मेरी महत्ता है; मेरी कविताओं को पढ़ने के बाद किवदंतियों, क़िस्से-कहानियों के महानायक ने मुझे फोन किया, अपनी प्रतिक्रिया दी। मैं देर रात तक जगता रहा, मुझे अपने आप पर भरोसा हुआ कि मैं लिख सकता हूँ; टीकाचक में जिन सपनों को मैं बुना करता था, उसे साकार कर सकता हूँ। मैंने आलमारी से ज्ञानेन्द्रपति जी की किताबें निकाली। ‘संशयात्मा’, ‘कवि ने कहा’, ‘गंगातट’ को रह-रहकर पलटता रहा। उसी रात सहसा निर्णय लिया कि अब मैं कविताएं नहीं लिखूँगा। मैं गद्य में काम करूँगा; मैं उपन्यास लिखूँगा, कहानियाँ-लेख आदि सब लिखूँगा; लेकिन कविता नहीं। कविता रचने की मेरी योग्यता नहीं, समझ नहीं। आज भी मुझे लगता है कविता के लिए एक अतिरिक्त योग्यता, एक अतिरिक्त समझ व संवेदना की दरकार होती है। गद्य-लेखन में मेरे जैसे आदमी के लिए कुछ संभावना हो सकती है, तो इस तरह ज्ञानेन्द्रपति जी, जो मेरे द्वारा कविताओं के रचे जाने के लिए सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत थे, उनके फोन कर कविता संग्रह पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने के ठीक बाद मैंने अपनी दिशा हमेशा के लिए बदल ली। बात विरोधाभासी होने के बावजूद यह उस रात का निर्णय था। निर्णय क्यों और कैसे लिया, मालूम नहीं। ‘अवसान निकट है’ इतना निकट होगा मालूम न था, मेरे द्वारा रची जाने वाली संभावित कविताओं का अवसान। भविष्य का पता नहीं, उसके लिए कोई दावा नहीं करता; क्या पता आगे कभी कुछ ऐसा रच पाऊँ जो कविता हो, कविता फिर से जनम जाए।
उसी रात मैंने निर्णय लिया कि मैं वह उपन्यास जल्द से जल्द पूरा करूँगा, जिसका ताना-बाना मैं मन ही मन बीस साल पहले, 1993 से बुन रहा था। उसके बाद मैं जुट गया; लिखता, लिखे हुए को पढ़ता और और फिर काटता-छाँटता। काटने-छाँटने की प्रक्रिया में मैंने जितना लिखा, उसका आधे से अधिक हटाने के बाद उपन्यास ने अपना रूप धरा। इसमें लगभग एक साल लग गया। उल्लेखनीय है कि ज्ञानेन्द्रपति जी की उस शाम की बातचीत के बाद उनसे फिर से संपर्क करने का साहस नहीं जुटा पाया। ख़ैर जब मेरा वह उपन्यास तैयार हो गया, तो मैंने ज्ञानेन्द्रपति जी को फोन लगाया, ‘‘सर, मैंने एक उपन्यास लिखा है। छपने से पूर्व एक बार यदि आप देख लेते तो…’’। उन्होंने पहले कहा कि वे गद्य के आदमी नहीं हैं, कविताओं पर थोड़ी बहुत राय दे भी सकते हैं, लेकिन गद्य… फिर वे मेरे आग्रह पर मान गए। मैं उपन्यास का प्रिंट आउट लेकर उनसे मिलने बनारस गया। उनकी राय से हिम्मत बंधी, अपने आप पर भरोसा बढ़ा। राम जन्मभूमि के शिलान्यास और भागलपुर दंगे (1989) की पृष्ठभूमि पर लिखा वह उपन्यास ‘9 नवंबर’ के नाम से छपा। मुझे लगता है राम जन्मभूमि के शिलान्यास (9 नवंबर 1989) की पृष्ठभूमि पर हिंदी में लिखा गया यह पहला और शायद इकलौता उपन्यास है। ख़ैर इसके छपने के बाद ही आपसे व अन्य साहित्यकारों से मिलने का सौभाग्य मिला और फिर बात आगे बढ़ती चलती गई।
उसी रात सहसा निर्णय लिया कि अब मैं कविताएं नहीं लिखूँगा। मैं गद्य में काम करूँगा; मैं उपन्यास लिखूँगा, कहानियाँ-लेख आदि सब लिखूँगा; लेकिन कविता नहीं। कविता रचने की मेरी योग्यता नहीं, समझ नहीं।
हाल के दिनों में जिस तरह से किताब विरोधी माहौल बना है, उससे सभी चिंतित हो उठते हैं- क्या ज़रूरत है लिखने की; कौन पढ़ता है और माना लोगों ने पढ़ भी लिया तो क्या फ़र्क पड़ता है?
आपको अपने पहले उपन्यास की प्रेरणा कहाँ से मिली? उसका प्लॉट कहाँ से व किस तरह मिला? उसको किस तरह साधा आपने, उसकी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं।
1989 में मैंने इंटरमीडिएट की परीक्षा पास की, उसी साल तय हुआ था कि 9 नवंबर को विवादित राम जन्मभूमि पर राम मंदिर का शिलान्यास होगा और इसके लिए 30 सितंबर को भारत के छह लाख गांवों में शिलापूजन होगा और फिर इन गांवों से रंग-गुलाल उड़ाती एक भव्य यात्रा राम जन्मभूमि के लिए निकलेगी। मेरा टीकाचक बिहार के भागलपुर जिले में पड़ता है। अक्टूबर 1989 के अंतिम सप्ताह में रामशिला यात्रा भागलपुर से गुज़री। इसके बाद भागलपुर में जो हुआ, उसने मुझे हिलाकर रख दिया। व्यक्तिगत स्तर पर एक व्यक्ति विशेष अपनी धार्मिक आस्था से क्या हासिल करता है, मुझे नहीं मालूम; लेकिन एक समाज, एक समूह, एक देश की सामूहिक धार्मिक आस्थाओं की परिणति कितनी अधार्मिक, कितनी वीभत्स, कितनी भयानक हो सकती है- यह मेरे सामने साफ़ था। एक ओर भयानक तरीके से काट डाले गए इन्सानी जिस्मों से जलकुम्भी वाले तालाब पट गए, मार दिए गए लोगों को खेत में दफ़न कर उन पर गोभी के फूल लगा दिये गये -सब धर्म के नाम पर। उसके कुछ साल पहले शाहबानो के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आने पर और फिर एक किताब (‘सैटेनिक वर्सेज’) के छपने पर इस्लाम का ख़तरे में आना। ये सब मुझे लगातार हॉन्ट् करता रहा, आज भी करता है। जहालत का धर्म या कि धर्म की जहालत कितनी संक्रामक होती है, मुझे स्पष्ट होता चला गया। धार्मिक नैतिकता, पवित्रता, दया-करुणा आदि के दिखावटी बादल छँटते चले गए और मुझे साफ़ दिख रहा था, एक ईश्वर के अनुयायी समूह की जहालत दूसरे ईश्वर के अनुयायी समूह की जहालत को किस क़दर ख़ुराक प्रदान करती है।
तो 1980 के दशक का भारत, विशेषकर भागलपुर का दंगा मेरे दिमाग में घूमता रहता था; साथ ही गांधी व नेहरू का ‘आइडिया ऑ़फ इंडिया’ भी। फिर 1992 में बाबरी मस्जिद का गिरना। मैं तब स्नातक का छात्र था। 1993 में मैंने इन सबकी पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखना शुरू किया। चूँकि मेरी पढ़ाई-लिखाई का एक बड़ा हिस्सा भागलपुर जिले के पड़ोसी संथाल परगना (गोड्डा जिला) में पूरा हुआ था; संथाल जीवन, उनका उत्पीड़न, उनका संघर्ष भी कहीं न कहीं मेरे दिलोदिमाग पर छाया रहता था, तो मैंने इस उपन्यास को सिदो कान्हो के संथाल विद्रोह से आरंभ किया। इस उपन्यास को आगे महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक लड़ाई से होते हुए 1980 के भारत की ओर बढ़ते हुए 9 नवंबर 1989 तक पहुँचना था। भारत के 9 नवंबर 1989 की तिथि के बरक्स विश्व इतिहास के लिए और समझ की दृष्टि से भी इस दिन का एक अलग महत्व था कि इसी दिन बर्लिन की दीवार गिरी थी और दो अलग हुए मुल्क़ (पूर्वी व पश्चिमी जर्मनी) एक साथ हुए, फिर से एक मुल्क़ बन गए, तो उपन्यास का कैनवास बहुत बड़ा था। ख़ैर मैं टुकड़ों-टुकड़ों में लिखने लगा। इसी बीच स्नातक की परीक्षा व रोज़ी-रोटी की ख़ातिर नौकरी की तलाश में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी की व्यस्तता रही। रह-रहकर कविता व कहानी भी लिखने लगता। फिर नौकरी लग गई, तो उसकी अपनी व्यस्तता। कुल मिलाकर मैं लिख नहीं पाया और मैं न लिख पाने का कोई ‘जस्टि़फिकेशन’ नहीं दे रहा। अफ़सोस है कि मैं जानते-बूझते ‘मिसप्लेस्ड प्रायोरिटीज’ का शिकार रहा हूँ, आज भी हूँ।
ख़ैर 2013 में जब उस उपन्यास को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए ठान लिया, तो उसके एक बड़े से भाग को निकाल दिया। वह उपन्यास अपने अंतिम रूप में जितने पृष्ठों का प्रकशित हुआ, उसका लगभग सवा गुना मैंने बाहर कर दिया गया। सिदो कान्हो, तिलका माँझी, संथाल विद्रोह व महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक लड़ाई में शामिल काल्पनिक पात्र ‘श्रद्धानंद बाबा’ के पूरे हिस्से को हटा दिया। (आपको शायद ध्यान हो कि यही श्रद्धानंद बाबा छपे उपन्यास के नायक, शेखर के पिता हैं।) अंतत: उपन्यास शाहबानो मामले की पृष्ठभूमि के साथ पहली फरवरी 1986 से शुरू होता है, जब जिला न्यायालय के आदेश से विवादित बाबरी मस्जिद का गेट नंबर ‘ओ’ और ‘पी’ खोला जाता है और इसका अंत 9 नवंबर 1989 को होता है। इसी बीच उपन्यास का नायक ‘नया आदमी’ की एक यूटोपियन अवधारणा को मूर्त रूप देने की कोशिश करता है, जो असफल रहता है। उपन्यास लिखे जाने के क्रम में इसका कई नाम सोचा, लेकिन आख़िरकार यह ‘9 नवंबर’ के नाम से प्रकाशित हुआ, जैसा पहले कह चुका हूँ, मुझे लगता है राम जन्मभूमि के शिलान्यास (9 नवंबर 1989) की पृष्ठभूमि पर हिंदी में लिखा गया यह पहला और शायद इकलौता उपन्यास है।
पहले उपन्यास का क्या रेस्पांस मिला? उसके पाठकों से क्या फीडबैक मिला?
‘9 नवंबर’ जनवरी 2015 में लोकार्पित हुआ। एक नए रचनाकार के पहले उपन्यास पर स्थापित साहित्यकारों ने जिस तरह से अपनी प्रतिक्रिया दी, वह बहुत अच्छा कहा जा सकता है। अख़बारों, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में जिस तरह से इसकी समीक्षा आदि प्रकाशित हुई, वह उम्मीद से कहीं अधिक थी। आम पाठकों से भी इसका शानदार रेस्पांस मिला। हिंदी के और विशेषकर नए लेखकों के लिए तब ऑनलाइन मार्केट (अमेज़न, फ्लिपकार्ट) व किंडल आदि बिल्कुल अनजान प्लेटफार्म हुआ करता था; लेकिन यह उपन्यास इन सभी प्लेटफार्म पर उपलब्ध कराया गया था। यही कारण है कि दूर-दराज़ के आम पाठकों तक यह उपन्यास तेज़ी से पहुँचा और छह महीने के अंदर इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। उल्लेखनीय है कि प्रकाशन के कुछ ही महीने बाद उड़िया के वरिष्ठ कवि कुमार हसन ने उड़िया में इसका अनुवाद करना आरंभ किया। मेरे एक साथी ने इसका अंग्रेज़ी में भी अनुवाद किया। आपके और हम दोनों के कवि मित्र रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति के सहयोग से भारत भवन, भोपाल में इस उपन्यास का नाटक के रूप में मंचन भी हुआ, जिसकी बड़ी तारी़फ़ हुई और मीडिया में भी उसकी ख़ासी चर्चा रही थी। जहाँ तक आम पाठकों के फीडबैक की बात है, तो वह बहुत अच्छा व दिलचस्प भी कहा जा सकता है। सोशल मीडिया, अमेज़न, फ्लिपकार्ट, गुडरीड्स आदि पर पाठकों के ढेरों पोस्ट से गुज़रते हुए एक अलग ही एहसास होता है। पाठकों के पोस्ट, उनकी प्रतिक्रिया भावविह्वल करते हैं; साथ ही ज़िम्मेदारी का एहसास भी बढ़ाते हैं।
दूसरे उपन्यास की शुरुआत किस तरह हुई? इसका विषय आपको कहाँ से मिला? किस तरह इसका विकास हुआ? क्या लिखते हुए कुछ व्यवधान भी आया? क्या रही इसकी रचना प्रक्रिया?
पहले उपन्यास (9 नवंबर) का फ़लक व्यापक था, राष्ट्रीय था, लेकिन उसके पात्रों का लोकेल भागलपुर के मेरे इलाक़े और बिहार में था। यह उपन्यास सांप्रदायिकता की समस्या को रेखांकित करते हुए इसके समाधान का एक विकल्प देता है। जैसा मैं पहले कह रहा था, मेरे बचपन का एक यथार्थ जाति-दंश रहा; यह गाहे-ब-गाहे विचलित करने लगता है। जाति-दंश की एक छोटी-सी झलकी ‘9 नवंबर’ में भी थी, लेकिन इस पर मुझे और भी लिखना था। एक और बात, अक्सर हम अपने जीवन में किसी काम विशेष को करने वाले को कमतर तो किसी अन्य तरह के काम करने वाले को महत्वपूर्ण कहने लगते हैं। मुझे यह बात कभी भी समझ में नहीं आई। किसी काम की ज़रूरत यदि समाज अथवा देश को है, तो वह महत्वपूर्ण काम है और उससे जुड़े लोगों की अपनी महत्ता है, उसे कमतर नहीं कहा जा सकता। मेरा दूसरा उपन्यास (‘बेतरतीब पन्ने’) इन्हीं बातों के इर्द-गिर्द घूमता है।
ख़ैर, जहाँ तक इस उपन्यास की शुरुआत और इसके लिए सोचे गए मूल कथानक की बात है, वह उस उपन्यास से बिल्कुल भिन्न था, जो छपकर आया। शुरुआत में इसका नाम सोचा था- ‘बस साढ़े तीन साल’। इस नाम का ज़िक्र इसलिए कर रहा हूँ कि इस उपन्यास की रूपरेखा एक सच्ची घटना से प्रभावित थी, जो मेरे क़रीबी परिवार में घटित हुई थी। यह एक अधेड़ महिला, जिसकी शादी के छब्बीस-सत्ताईस साल हो चुके थे, के विवाहेतर संबंध के कारण परिवार के बिखरने एवं उसके बेहद त्रासदपूर्ण अंत की कहानी थी। जो कुछ भी उस परिवार के साथ हुआ था, वह महज ढाई-तीन साल में ख़त्म हो गया। इसलिए नाम सोचा, ‘बस साढ़े तीन साल’ और उपन्यास लिखना आरंभ किया। सोचा था कि एक सीधी-सरल कहानी रहेगी, लेकिन हो न सका। मूल कहानी कहीं पीछे छूट गई क्योंकि उपन्यास के पात्र मेरे नियंत्रण से बाहर होते चले गए और चलते-फिरते, दौड़ने लगे; फिर उड़ने भी लगे। वे बिहार के इलाक़ों से निकलकर अबोहर, लखनऊ, भोपाल होते हुए कश्मीर पहुँच गए। इस तरह इसका फ़लक फिर से बड़ा हो गया। उपन्यास की रूपरेखा तैयार करते समय सोचा न था कि जाति-दंश की पीड़ा, कश्मीर की पीड़ा एवं समाज में व्याप्त दूसरे दर्द इस तरीके से उभर कर आएंगे और यह हर तरह के वंचितों के पक्ष में ‘इंटीग्रल रियलिटी’ का उपन्यास हो जाएगा, जैसा कि वीरेन्द्र यादव जी ने कहा था।
इसी के साथ मैं अपने लेखन की एक बात (जो बहुतेरे लेखकों के साथ भी होता है) शेयर करना चाहता हूँ, मेरे उपन्यास के पात्र अपनी ज़िंदगी जीने लगते हैं; वे बेकाबू हो जाते हैं और अधिकतर मैं उनके समक्ष सरेंडर कर देता हूँ, बग़ैर किसी ज़िद अथवा आग्रह के। यहीं एक और बात उल्लेखनीय है कि भले ही मुझे संपादन का कोई औपचारिक अनुभव न हो, अपनी रचनाओं, किताबों का मैं बेहद निर्मम संपादक होता हूँ। बग़ैर किसी दया अथवा करुणा के मैं महीनों की मेहनत को बाहर कर देता हूँ। जैसा मैंने पहले कहा था, ‘9 नवंबर’ में आज जो है उसका लगभग सवा गुना किताब के बाहर रह गया। इसी तरह ‘बेतरतीब पन्ने’ में जितने पन्ने शामिल हैं, लगभग उतने ही पन्ने बस कंप्यूटर में रह गए। कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों एवं पाठकों का मत है कि ‘बेतरतीब पन्ने’ का साइज़ थोड़ा और बड़ा होना चाहिए था, लेकिन क्या करूँ मेरे अंदर का संपादक अपने लेखक की बिल्कुल नहीं सुनता है।
रही बात व्यवधान की, तो ‘मिसप्लेस्ड प्रायोरिटीज’ का वही पुराना रोना रोते हुए आपके समक्ष अपनी एक और आदत से लाचार होने का रोना रो लेता हूँ। यह रोना ‘प्रोक्रैस्टिनेशन’ का है, किसी भी काम को टालते रहने की प्रवृत्ति ही सबसे बड़ा व्यवधान है। सोचता तो हूँ लेकिन कोई सुधार नहीं है। कब तक अपनी प्राथमिकताएं बेहतर तरीके से नियोजित कर पाऊँगा; कब तक कुछ और अनुशासित और ‘प्रोएक्टिव’ हो पाता हूँ – यह सबसे बड़ा सवाल है, जिसका जवाब मेरे पास नहीं है।
‘बेतरतीब पन्ने’ के चार संस्करण हो चुके हैं। हिंदी साहित्य के पाठकों के बारे में बताएं, क्या वह चुप्पा है या वह अपने लेखक से संवाद करता है?
संभव है कि एक पाठक अपने लेखक से संवाद न करता हो, न कर पाता हो। न कर पाने के कई कारण हो सकते हैं। संकोच व झिझक भी बड़ा कारण हो सकता है। बतौर पाठक मैं अपने पसंद के लेखकों, कवियों से संपर्क नहीं कर पाया; आज भी नहीं कर पाता हूँ। इसके अतिरिक्त लेखक-पाठक संवाद हेतु औपचारिक मंचों का भी अभाव है। लेखक संघ हैं ज़रूर लेकिन उनकी आम पाठकों के बीच कोई पैठ नहीं। बावजूद इन सबके पाठकों को चुप्पा कहना उचित नहीं होगा। वे लेखक से न सही, आपस में तो संवाद अवश्य करते हैं। संवाद का तरीका बदला है। सोशल मीडिया पर एक आम पाठक द्वारा डाला जाने वाला पोस्ट; फ्लिपकार्ट, अमेज़न, गुडरीड्स आदि पर डाली जाने वाली रेटिंग व फीडबैक भी तो संवाद का एक तरीक़ा है। यह कहा जा सकता है कि अमेज़न, फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन दुकानों पर डाला गया फीडबैक एक कंज्यूमर (उपभोक्ता) का एक उत्पाद पर दिया जाने वाला फीडबैक है; लेकिन इन प्रतिक्रियाओं को इस तरीके से ख़ारिज करना उचित नहीं होगा। किताब के संबंध में एक छोटी-सी टिप्पणी भी मतलब रखती है, वह महत्वपूर्ण है। यक़ीनन वह पाठक की टिप्पणी है और इस टिप्पणी के मा़र्फ़त वह लेखक से भी संवाद स्थापित कर लेता है, एकतरफ़ा सही लेकिन वह अपनी बात पहुँचा देता है।
आपको ध्यान होगा, ‘बेतरतीब पन्ने’ का पहला संस्करण 2019 में प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा संस्करण आने में लगभग दो साल का समय लग गया; जबकि उस पर पुस्तक चर्चा का आयोजन हुआ, अ़ख़बारों में किताब के संबंध में रपटें एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में समीक्षाएं छपीं। वहीं तीसरा व चौथा संस्करण अगले एक साल में छह-छह महीने के अंतराल पर आया। धीरे-धीरे ही सही, पाठकों के आपसी संवाद एवं उनकी प्रतिक्रियाओं का ही मतलब है, वही किताब को ज़िंदा रखता है। भले ही सीधे-सीधे लेखक से संवाद न हो लेकिन जब सेल्स रिपोर्ट बताती है कि हिंदी भाषी इलाक़ों में ही नहीं पूरे देश के कोने-कोने में, सुदूर पूर्वोत्तर के क़स्बों अथवा ग़ैर हिंदी प्रदेशों में भी ऐसे लोग हैं, जो आपकी किताब ख़रीद कर मँगवा रहे हैं, तो नि:संदेह यह एक तरी़के से लेखक से संवाद ही है, मूक सही। एक और बात, रचनाएं यदि दिल को छूती हैं और पाठकों को झकझोरती हैं, तो फिर कई पाठक अपने आप को रोक नहीं पाते हैं। यह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूँ। ‘वह नारी है…’ की कई महिला पाठक अपने आप को नहीं रोक पाईं। उन्होंने संपर्क किया। इसी तरह ‘बेतरतीब पन्ने’ के तमाम पाठकों ने संपर्क किया। संपर्क करने वाले सभी पाठकों में एक बात कॉमन थी, उन्होंने रचनाओं से अपने आप को रिलेट किया था; सबने कहा कि ये उनकी अपनी कहानी है।
आप अपने किसी आम पाठक से रू-ब-रू हुए? इस संबंध में कुछ विशेष अनुभव?
मेरी किताबों पर मेरा पता व मोबाइल नंबर नहीं होता है, लेकिन गाहे-ब-गाहे पाठक संपर्क कर लेते हैं। 2017 में जब ‘वह नारी है…’ प्रकशित हुआ, तो कई महिला पाठकों ने फेसबुक चैट/मैसेज के माध्यम से संपर्क किया, वे भावविह्वल हो उठती हैं। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि इस किताब के लेखों ने न केवल उनके दिल को स्पर्श किया है बल्कि उन्हें बेचैन भी किया है। ‘वह नारी है…’ के बाद ‘बेतरतीब पन्ने’ के भी तमाम पाठक फेसबुक के माध्यम से संपर्क करते हैं। कुछ ई-मेल के माध्यम से भी संपर्क करते हैं। देर-सबेर मैं सबको जवाब देता हूँ। कुछ शोधार्थी एवं हिंदी भाषा के छात्र-छात्रा भी संपर्क करते हैं। उनकी ज़रूरत अकादमिक होती है। कई बार वे मेरे जीवन व किताबों के संबंध में प्रश्नों की सूची भी भेज देते हैं, इस अपेक्षा के साथ कि मैं वांछित सूचना उपलब्ध करवा दूँ ताकि उन्हें शोध प्रबंध/प्रोजेक्ट आदि तैयार करने में मदद मिले।
किसी अनजान, आम पाठक से मुलाक़ात आदि का कोई दिलचस्प अथवा विशेष अनुभव तो नहीं है, लेकिन एक वाक़या आपसे शेयर किया जा सकता है। मेरे एक क़रीबी रिश्तेदार हैं, उन्हें मालूम था कि मैं लिखता हूँ और मेरी कुछ किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन उन्होंने मेरी कोई रचना पढ़ी न थी; आज भी पढ़ी नहीं होगी। वे एक सरकारी उपक्रम में वरिष्ठ अधिकारी हैं। एक बार वे मुख्यालय से बाहर दूसरे शहर में स्थित अपने अधीनस्थ दफ़्तर के दौरे पर थे। वहाँ एक युवा प्रशिक्षु अधिकारी से उनकी मुला़कात हुई। बातों-बातों में उन्होंने उस प्रशिक्षु अधिकारी से उसकी हॉबी के बारे में पूछा तो उसने जवाब दिया, ‘किताबें पढ़ना।’ फिर उन्होंने बात आगे बढ़ाई और उसके पसंदीदा लेखकों और किताबों के बारे में पूछा। इस पर उसने जो जवाब दिया, उससे वे चौंक गए। उस युवा अधिकारी ने पहले मेरा नाम लिया और फिर बोलता ही चला गया- ‘‘सबसे पहले ‘वह नारी है…’ पढ़ी थी; सर, ये किताब… फिर ‘बेतरतीब पन्ने’; सर मैं बता नहीं सकता… आजकल ‘भीड़-भारत’ पढ़ रहा हूँ और उनका पहला उपन्यास ‘9 नवंबर’ भी मँगा चुका हूँ… सर एक बार उनको पढ़कर…’’ आदि-आदि। बकौल मेरे रिश्तेदार, वे बस उसको देखते रह गए। उन्हें लगा, मेरा हमनाम कोई दूसरा लेखक होगा और उन्हें मेरी किताबों का नाम भी कहाँ याद था। फिर उन्होंने उस युवा अधिकारी से पूछा कि क्या उसके पास उसके प्रिय लेखक की कोई किताब है। इस पर उस युवा ने उन्हें लेख संग्रह ‘भीड़-भारत’ दिखाई, जिस पर छपे मेरे फोटो को देखकर उन्होंने तसल्ली की कि यह मैं ही हूँ। उन्होंने तत्काल मुझे फोन किया, लेकिन किसी वजह से मैं उनका फोन नहीं उठा पाया। बाद में जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘‘भाई, आप तो बहुत बड़े हो गए हैं। अब तो आपके ‘फैन’ भी होने लगे हैं।’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘अब तो आप मेरी किताब पढ़ लीजिए।’’ उन्होंने कहा, ‘‘ज़रूर-ज़रूर!!’’
आप अपने उपन्यासों के पात्र कहाँ से उठाते हैं? क्या वे वास्तविक ज़िंदगी में मिले लोग हैं या कल्पना के हिस्से मात्र? आपके दोनों उपन्यासों के किन पात्रों से आपका विशेष जुड़ाव महसूस होता और क्यों?
उपन्यास का कथानक और उसके पात्र आते तो वास्तविक ज़िंदगी से ही हैं। कुछ से मुलाक़ात है, कुछ पात्रों को रिसर्च के बाद अपनी कल्पना से गढ़ा है। जिनसे मुलाक़ात है, वे उपन्यास के किसी पात्र के रूप में हूबहू नहीं हैं बल्कि उनकी कुछ छवियों को कथानक की मांग के अनुरूप विस्तार दिया गया है। साथ ही वास्तविक ज़िंदगी में मिले एक ही इंसान की अलग-अलग बातें उपन्यास के अलग-अलग किरदारों में दिखती हैं। कहने का मतलब कि समग्रता में कथानक वास्तविक घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमता है लेकिन उपन्यास में उन घटनाओं से जुड़े जो वास्तविक पात्र हैं, उनसे मेरी कोई मुला़कात नहीं; वास्तविक ज़िंदगी में वे किसी और काल-परिस्थिति में मुझसे मिले थे। उन्हें एवं उनकी छवियों को अपनी कल्पना से कथानक की मांग के मुताबि़क़ उपन्यास में फिट किया गया है। उदाहरणस्वरूप ‘बेतरतीब पन्ने’ का रणजीत सिकदार आंशिक रूप से एक वास्तविक चरित्र है, लेकिन उसकी किसी कॉलेज के गेट पर कोई गुमटी (दुकान) नहीं रही, जैसा कि उपन्यास में है। ‘9 नवंबर’ के श्रद्धानंद बाबा का किरदार एक वास्तविक चरित्र से प्रभावित है। ‘बेतरतीब पन्ने’ की अलका भी वास्तविक ज़िंदगी से प्रभावित है। दोनों उपन्यासों का शेखर एवं ‘बेतरतीब पन्ने’ के रणजीत सिकदार से विशेष जुड़ाव महसूस करता हूँ। शायद इसलिए कि कभी-कभी लगता है कि वे मेरी ही बातों को दुहरा रहे हैं।
बीच में आपके निबंधों का एक संग्रह जो स्त्री मुद्दों पर एकाग्र है, ‘वह नारी है…’ आया, तो इसके लेखन की क्या प्रक्रिया रही? क्या यह पुस्तक एक प्रोजेक्ट की तरह एक बार में लिखी गई या इसमें समय-समय पर लिखे लेख हैं?
लखनऊ के पास से स्थानीय स्तर पर हिंदी की एक त्रैमासिक पत्रिका छपती थी। उसके संपादक के आग्रह पर प्रत्येक अंक में एक स्थायी कॉलम लिखने की योजना बनी। जब उस पत्रिका में नियमित कॉलम लिखने की बात निकली, तो मैंने सोचा कि स्त्री मसले पर लिखूँगा। मैं आपसे अपने जीवन पर टीकाचक के प्रभाव की बात कर रहा था। टीकाचक के संयुक्त परिवार में हम भाई-बहन जिन मसलों पर उलझते, वाद-विवाद करते थे, उनमें से एक अहम मसला स्त्रियों से जुड़ा था। तो नियमित कॉलम लिखने के लिए यह विषय मुझे सबसे उपयुक्त लगा और इस तरह राजस्थान के रूप कँवर की घटना को लेकर सितंबर 2013 में पहला लेख लिखा, ‘तुम नारी हो, सती नहीं!’ यह लेख उस पत्रिका के अगले अंक में छपा, लेकिन वह अंक पत्रिका का अंतिम अंक रहा और उसका प्रकाशन हमेशा के लिए बंद हो गया। इससे इस मसले पर नियमित रूप से मेरे लिखने की योजना को झटका लगा, लेकिन एक शुरुआत हो चुकी थी। मैं छिटपुट लिखता रहा, जो इधर-उधर छपा भी। मुझे ध्यान आ रहा है, आपने भी ‘मंतव्य’ के एक अंक में तीन लेख छापे थे। तो इस तरह से 2016 के अंत तक इतने लेख जमा हो गए कि वे मिलकर एक किताब का रूप ले सकें और अंतत: फरवरी 2017 में लेख संग्रह ‘वह नारी है…’ के पहले संस्करण का प्रकाशन हुआ। अभी इसका जो तीसरा संस्करण छपा है, उसमें एक नया लेख शामिल है, जिसे मैंने मार्च 2018 में लिखा था। इस तरह से ‘वह नारी है…’ में शामिल रचनाएं बतौर प्रोजेक्ट एक बार में नहीं लिखी गईं। अभी भी स्त्री मसले पर कुछ लिखता हूँ और कुछ दिमाग में घूमता रहता है, जिन्हें इस किताब के अगले संस्करण में शामिल किया जा सकता है।
समकालीन देशकाल के चिंतन पर आधारित आपकी एक पुस्तक है – ‘भीड़-भारत’, इस पुस्तक की योजना कैसे बनी?
‘टीकाचक’ नाम से मेरा ब्लॉग है। इस पर पहले मैं नियमित रूप से लिखा करता था। समकालीन दौर से जुड़ी चिंताएं स्वाभाविक रूप से लेखन में आ जाती हैं, तो ब्लॉग में गाहे-ब-गाहे समसामयिक मसले पर लेख आ जाते थे। इन्हीं लेखों से मिलकर किताब ‘भीड़-भारत’ तैयार हुई। वैसे इस किताब के संबंध में एक बात कहनी है। जब इस किताब को अंतिम रूप दिया जा रहा था, तब इसमें शामिल लेखों को मैंने एक साथ पढ़ा और पाया कि यह किताब और इसके लेख केवल किसी काल विशेष के लिए नहीं हैं। भले ही ये लेख किसी काल व परिस्थिति को लक्षित करके लिखे गए हों, ये समय की बंदिशों का अतिक्रमण करते हैं। इसलिए यह किताब कालातीत अथवा पुरानी नहीं होने वाली। इसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी।
आपने कभी कहानी नहीं लिखी? क्यों? सीधे आपने उपन्यास में हाथ आज़माया, जबकि कथाकार कहानी से शुरुआत करते हैं!
जैसा मैं पहले बता चुका हूँ, मैंने शुरुआत (छात्र जीवन) में कहानियाँ लिखी थीं। कहानियाँ कहीं छप नहीं पाईं। समय के साथ कुछ कहानियाँ खो गईं और तमाम कहानियाँ पुरानी फ़ाइल में बंद पड़ी हैं। फ़ाइल खोलने व उन कहानियों को देखने की अब हिम्मत नहीं हैं। कहानी लिखना तो चाहता हूँ लेकिन यह कठिन लगता है (कविताओं की तरह)। एक तो समय की मारा-मारी, ऊपर से आलसी प्रवृत्ति, ऐसे में कहानियों के मु़क़ाबले उपन्यास रचना आसान लगता है। आप लिखते रहिए, फिर जितना चाहे काटिए-छाँटिए कोई चिंता नहीं; कथाएं-उपकथाएं आती-जाती रहेंगी। जब मन करे, लिखना बंद कर दीजिए और उपन्यास के प्लॉट की रिसर्च के नाम पर तमाम नई किताबें पढ़ डालिए। कुल मिलाकर, उपन्यास लेखन मेरे मिज़ाज के हिसाब से फिट बैठता है।
आप व्यस्त बैंकिंग सेवा के एक ज़िम्मेदार पद पर हैं, अपने गुरुतर दायित्वों का निर्वाह करते हुए लिखने का समय किस तरह निकाल लेते हैं? कब लिखते हैं आप?
दिन ‘दुनिया’ के लिए और रात ‘दीन’ के लिए। मानता हूँ, ‘बे-दीन’ हूँ; किताबों से मोहब्बत करना और कुछ लिख लेना, इसी को अपना ‘दीन’ कह लेता हूँ। ऐसे में, अपने और अपने ‘दीन’ के लिए रात से बेहतर कुछ और नहीं। रतजगे में बहुत सुख है।
आपके लेखन पर क्या कुछ पारिवारिक दबाव भी पड़ता है?
थोड़ा-बहुत तो रहता ही है। वक़्त की मारा-मारी रहती है। घरवालों की अपेक्षा होती है कि उनके साथ समय गुज़ारा जाए; हाट-बाज़ार जाया जाए; सामाजिकता निभाई जाए, किसी के घर चलें, किसी को खाने पर बुलाते हैं आदि-आदि। इसके अतिरिक्त, हाल के दिनों में जिस तरह से किताब विरोधी माहौल बना है, उससे सभी चिंतित हो उठते हैं-‘क्या ज़रूरत है लिखने की; कौन पढ़ता है और माना लोगों ने पढ़ भी लिया तो क्या फ़र्क पड़ता है; तुम्हें क्या हासिल होता है! सुख-चैन से रहने में क्या जाता है!! फिर लिखना ही है तो कुछ और लिखो। सकारात्मक भी तो लिख सकते हो। टाइम मैनेजमेंट, लीडरशिप, मॉटिवेशन पर लिखो। फिर भी लिखने में कुछ तो ऐसी कशिश है कि हर दबाव से भिड़ते हुए, छुप-छुपाकर ही सही; हर रात उस अबूझ कशिश के पीछे भागते रहने की चाहत बची रहती है।
आगामी लेखन योजनाएं क्या हैं?
एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ। रिटायर हो चुके एक विधुर की कहानी है। अंत होते-होते इस कहानी में क्या-क्या होगा, मुझे भी ठीक-ठीक नहीं मालूम। कोशिश है कि यथाशीघ्र यह कहानी अपने अंजाम तक पहुँचे।
कहा जा रहा है कि सोशल मीडिया के कारण साहित्य की पाठकीयता गहरे संकट से गुज़र रही है, आपको क्या लगता है?
टी. वी. के आने के बाद से ही संकट गहराया है। सोशल मीडिया के कारण फटाफट की संस्कृति, पल झपकते निपटाने एवं थोड़ा ठहरकर टिक न पाने प्रवृत्ति बढ़ी है। पढ़ने के लिए तो ठहरना पड़ेगा, थोड़ी देर टिकना होगा। ऐसे में संकट तो है। बावजूद इसके, एक दूसरा पहलू भी है। इंटरनेट के कारण पाठकों की वापसी भी हुई है। दूर-दराज़ के इलाक़ों में सुगमता से साहित्य पहुँचा है। केवल प्रिंट रूप की किताब के माध्यम से नहीं, साहित्य नए दौर के नए माध्यम से लोगों तक पहुँच रहा है; अपना पाठक वर्ग बना रहा है। कहने का कुल मतलब कि निराश नहीं होना है। ‘सेपियन्स’ में हरारी कहता है, क़िस्से-कहानी रचने-गढ़ने की कला से ही आदमी ने पृथ्वी ग्रह पर फ़तह हासिल किया जबकि उसके मु़क़ाबले न जाने कितने ताकतवर प्राणी इस धरती पर थे, तो साहित्य रचना-गढ़ना-पढ़ना (देखना-सुनना) इंसान के मूल में है। इसलिए जब तक इंसान है, साहित्य बचा रहेगा भले ही समय के साथ रूप बदल जाए।
साहित्य आपको क्या देता है यानि कि आप क्यों लिखते हैं?
मैं क्यों लिखता हूँ, यह बड़ा कठिन सवाल है। इससे मुझे क्या मिलता है या लेखन से मुझे क्या प्रतिसंदाय चाहिए, ठीक-ठीक नहीं समझ पाता हूँ। पैसा, नाम अथवा पहचान??? नहीं। लिखता हूँ क्योंकि अच्छा लगता है। मेरे लिए शायद यह एक ऐसा काम है, जो मैं बग़ैर किसी चाहत के करता हूँ। हम तमाम काम करते हैं, उनको करने के तमाम कारण गिनवाते हैं। हम नौकरी अथवा कोई काम कर रहे होते हैं, जबकि कई बार वह करना अच्छा नहीं लग रहा होता, मज़ा नहीं आ रहा होता; लेकिन हम किए जा रहे होते हैं क्योंकि उससे पैसा, इज़्ज़त, पहचान जुड़े हैं। इन सब के इतर हमारे लिए कुछ तो ऐसा ज़रूर बचा रहता है, जिसे करके हमें अच्छा लगता है। वे पल हमारे जीवन के सबसे बेहतरीन पल होते हैं। लिखना मेरे लिए ऐसा ही अनुभव है।
संजय चौबे की रचनाएं झकझोरती हैं। इस इंटरव्यू से उनके बारे में बहुत कुछ नया जानने को मिला। साथ ही उनकी रचना प्रक्रिया को भी समझने का मौका मिला। हरेप्रकाश जी को धन्यवाद। साथ ही सबद परिवार को भी शुभकामनाएं।
शानदार इंटरव्यू!! 💯
इस दौर के एक बेहतरीन लेखक को जानने का अवसर मिला|
शुक्रिया 🙏
सटिक प्रश्न करनेवाले हरेप्रकाश उपाध्याय जी और उसका शानदार उत्तर देनेवाले लेखक कवी संजय चौबे जी का एक सर्वोत्तम इंटरवू बोल सकते है | आप दोनों का धन्यवाद | एक लेखक के जीवन का कार्यकाल, उसके विचार और व्यक्तिमत्व के बारे में जान सके | साथ ही लेखक कवी संजय चौबे जी के Youtube चॅनेल Sanjay Choubey Writer से जुडा हूं और उनके 10K Subsriber होने पर उनको बधाई देता हूँ |🙏🏻
लेखक और कवि श्री संजय चौबे से लखनऊ में मेरी पदस्थापना के दौरान कई बार मुलाकातों का मौका मिला।
श्री चौबे एक अति संवेदनशील इंसान और बेहतरीन लेखक, कवि है। श्री चौबे स्वयं एक बैंकर होने के साथ ही साहित्य के प्रति भी समर्पित है।
श्री चौबे का साक्षात्कार उत्तम है।
श्री चौबे को हार्दिक शुभकामनाएं।
उपन्यासों और कथानकों के उत्कृष्टता के ही तरह आपका साक्षात्कार भी उत्कृष्ट है, आपके निरंतर नव चिंतन से साहित्य जगत के प्रगति हेतु हमारी असीम शुभकामनाएँ 👏👏💐💐🙏🙏
Nice sir…very very congratulations sir