कविता

अनंत आलोक की कविताएँ

अनन्त आलोक हिमाचल प्रदेश के बहुत खूबसूरत हिस्से सिरमौर से ताल्लुक रखते हैं। उन्होंने वाणिज्य स्नातक, शिक्षा स्नातक और  स्नातकोत्तर हिंदी की पढ़ाई की है और सम्प्रति हिमाचल सरकार में अध्यापन के कार्य में संलग्न हैं। उनकी पुस्तकें- तलाश (काव्य संग्रह), यादो रे दिवे (सिरमौरी में हाइकु अनुवाद) प्रकाशित हैं और हंस, कथाक्रम, वागर्थ, वीणा, लहक, बया, विपाशा, अहा! जिन्दगी, सोमसी, हिमभारती, हिमप्रस्थ, बाल हंस, बाल भारती, बाल किलकारी, आदि शताधिक पत्र पत्रिकाओं एवं ऑनलाइन पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायेँ, ग़ज़लें, लघुकथाएं, बाल कथाएं, बाल कवितायेँ और आलेख आदि प्रकाशित और चर्चा में। प्रसारण : दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं प्राइवेट टीवी चैनल पर साक्षात्कार, कवितायेँ, ग़ज़लें, आलेख एवं वार्ता प्रसारित। उनकी अनेक समीक्षाएं प्रकाशित हैं एवं कई संकलनों में संकलित हैं। उनके सिरमौरी में लिखे लोकगीतों का प्रसिद्ध लोकगायकों द्वारा गायन एवं फिल्मांकन हुआ है | कवि सम्मेलनों, मुशायरों एवं लघुकथा सम्मेलनों में निरंतर भागीदारी है। सिरमौरी कहानी ‘पापड़ा’ का हिंदी अनुवाद साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक में संकलित। हिमाचली संस्कृति में रूचि एवं निरंतर लेखन, हिमाचली लोकगीत-गंगी का विशेष शास्त्रीय अध्ययन एवं शोध। 

अनंत आलोक की कविताओं में हिमाचल का जीवन और लोकराग अपने पूरे वैभव के साथ मौजूद है लेकिन वह साथ-ही-साथ समकालीन यथार्थ और जीवन-स्थितियों से सम्बद्ध भी होता चलता है। अपनी छोटी कविताओं में वे मितकथन के शिल्प को पूरे कौशल के साथ साधते हुए दिखते हैं। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ।

श्रम    

गिरेबाँ

एक खूँटी पर टंगा है,

वहीं पीछे को दो टाँगे टंगी हैं

सिरहाने सिर

बगल में हाथ रख कर

सुबह तक के लिए

धड़ मर गया है।

पीठ लगाना    

बचपन में जब
माँ के साथ जाता था
घास-पत्ती या फिर
लकड़ी लेने

 

माँ बाँध कर
देती थी

अलग से
मेरा छोटा सा भारा
मेरी नन्ही-नन्ही बांहों में
फँसा कर काछी

ज्यों अब मायें
फँसाती हैँ

अपनी नन्ही-मुन्नी की बाहों में
उनके स्कूल बेग की तनियाँ

 

माँ कहती थी

ले पीठ लगा

मैं चकवा देती हूँ तेरा भारा,

पीठ लगाने का मतलब

सिर्फ किसी को हरा देना

ही नहीं होता


मरने से बचो    

जो एक बार मरता है

वह दूसरी बार मरता है

फिर तीसरी बार मरता है  

वह बार-बार मरता है

उसे मरने की लत लग जाती है 

मरने से बचो

आग से खेलती स्त्रियाँ 

तुम्हारी अनुपस्थिति में

अपने लिए चाय की एक रंगहीन

गंधहीन और स्वाधीन प्याली बनाते वक्त

गैसलाइटर को झटकने-पटकने

ठोकने-पीटने के बाद

अचानक भक्क से जल उठा चूल्हा

जला गये मेरी उँगलियों की पीठ पर बढ़ आए

कुछ गैरजरूरी बाल

 

चौंक कर देखता रहा उन्हें बार-बार

बड़ी देर तक

खिन्न मन बनाता रहा योजना

तुम्हीं से तुम्हारी शिकायत की

 

फिर अचानक एक कौंध ने बताया

तुमने कब की थी मुझसे शिकायत!

जब पहली दफा जले होंगे तुम्हारे हाथ के बाल

सिर के बाल

यहाँ तक कि तुम्हारी आँख की पलकें भी

झुलसी होंगी कई बार

हम सब के पेट की आग बुझाने के लिए

आग से खेलते वक्त

 

आग का कोई मित्र या शत्रु नहीं होता

स्त्रियाँ खेलती हैं आग से दिन- रात

इनकी उँगलियों के इशारे पर नाचती हैं आग की लपटें

चूल्हे के मुंह में धधकते अँगार डरकर

छुप जाते हैं चूल्हे के हलक में

स्त्रियों की आँख में धधकते अँगार को देखकर

 

बेशक आग की ही दोस्ती हो सकती है आग से

आग तब तक ही भली है जब तक वह आंच देती रहे 

मर्दों को हमेशा रखना चाहिए ध्यान

 

कि स्त्रियों के भीतर की आग को हवा न दें 

मांसल गुलाब    

याद नहीं

कौन सा दिन था वह

कौन से दिन का कौन सा पहर

और कौन से पहर की कौन सी घड़ी

यकीनी तौर पर ये भी नहीं कह सकता

कि फरवरी का ही महीना था

या जनवरी का कोई आखिरी दिन

बस इतना भर याद है

कि वसंत के नशे में

नहाये हुए थे हम दोनों

जब उसके कंपकंपाते लबों पर

पहली दफ़ा रखा था मैंने

मांसल गुलाब

नदी का रोना     

नदी जब भी कभी

गुस्से

बहुत गुस्से में होती है

और उसका वश नहीं चलता

तो वह बस

रो ही देती है

घास काटना      

पहाड़ के काँधे चढ़ी औरतें

कर रही हैं हजामत

बूढ़े पहाड़ की

कनपटी और सिर के पिछले हिस्से में

बचे-खुचेपकेभुरियाये बाल

क़तर देती हैं हर बरस

जाड़ा आने से पहले

ये औरतें भले ही प्रोफेशनल हज्जाम न हों

लेकिन इनके आगे बड़े बड़े हज्जाम

भरते हैं पानी

जब चलता है इनका दराती-उस्तरा

 

इनमें से अधिकतर ने नहीं पढ़ा है

गणित

मगर इनके ज्यामितिक ज्ञान का कोई सानी नहीं

बिजली की फुर्ती से कतरती हैं ये

अपने-अपने हिस्से के

आयत, वर्ग और त्रिभुज

बिना स्केल-पेंसिल और प्रकार के

काटती हैं

भिन्न भिन्न प्रकार के स्टेंसिल

पहाड़ का सर हो जाता है

एकदम फैशनेबल-आकर्षक

 

फ़िल्मी सितारों

आज के नौजवानों ने

इन्हीं से सीखा होगा

बालों में कटिंग के अलगअलग

डिजाइन बनवाना

पहाड़ ने गर्दन से छाती तक

ओढा रखा है स्लेट पत्थर के श्यामश्वेत  

मकानों से बना चेकदार काफिया

 

गेहुँवी हरी टी-शर्ट पहने पर्वत

लगता है एकदम स्मार्ट

हैंडसम ओल्ड यंगमैन

औरतों ने रख दी हैं

अपने-अपने हिस्से की आकृतियाँ

अपने देसी फार्मूले से बदलकर

बड़े बड़े शंकु और बेलन में

निरा मूर्ख था वह आदमी

जिसने बनाया था मुहावरा

घास काटना

 

घास काटना‘ होता है!

संपर्क : ‘साहित्यालोक’, बायरी डाकघर एवं तहसील ददाहू, जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश-173022

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