कविता

अनामिका अनु की कविताएँ

मुज़फ़्फ़रपुर में जन्मी और केरल में रह रहीं अनामिका अनु को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (2020), राजस्थान पत्रिका वार्षिक सृजनात्मक पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ कवि, प्रथम पुरस्कार, 2021) और रज़ा फेलोशिप (2022) प्राप्त है। इन्हें 2023 का ‘महेश अंजुम युवा कविता सम्मान’ (केदार न्यास) मिल चुका है। उनके प्रकाशित काव्यसंग्रह का नाम है ‘इंजीकरी’ (वाणी प्रकाशन, रज़ा फाउंडेशन) है। उन्होंने ‘यारेख : प्रेमपत्रों का संकलन’ (पेंगुइन रैंडम हाउस,हिन्द पॉकेट बुक्स) का सम्पादन करने के अलावा ‘केरल से अनामिका अनु : केरल के कवि और उनकी कविताएँ’ का भी सम्पादन किया है। इनकी किताब ‘सिद्धार्थ और गिलहरी’ को राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है जिसमें के. सच्चिदानंदन की इक्यावन कविताओं का अनुवाद है। उनकी रचनाओं का अनुवाद पंजाबी, मलयालम, तेलुगू, मराठी, नेपाली, उड़िया, गुजराती, असमिया, अंग्रेज़ी, कन्नड़ और बांग्ला में हो चुका है। वह एमएससी (विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक) और पीएच डी (इंस्पायर अवॉर्ड, डीएसटी) भी हैं। अनामिका अनु की रचनाएँ देशभर के सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और मीडिया में देखने, पढ़ने और सुनने को मिलती हैं।

अनामिका अनु की कविताएँ संवेदना के एकदम नए इलाकों की तलाश करती हैं। इन कविताओं में बहुधा दृश्य हैं, मानो शब्दों की खिड़कियों से हम संसार की कितने ही सुंदर-असुंदर बिंबों को देखने की प्रक्रिया में हों। अनामिका के यहाँ प्रेम की निराशा और उदासी भी अंधेरे के वृत्त में नहाए हुए शोक के वैभव से समृद्ध दिखते हैं। उनका एकांत अपने रहस्य रचता है और कलात्मक परिष्कार से जैसे चेतना में समुन्नत होता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि अपनी कविताओं में वे गहरी पर्यवेक्षण दृष्टि के साथ ‘पुरुषों के उत्सव में स्त्री की गुलामी के रंग को इंगित करना भूल गएजैसे प्रश्न भी उठाती हैं। प्रणय में स्त्री के दासत्व का जो काव्यात्मक रूपक उनकी कविताओं में उपस्थित है वह असाधारण रूप से विरल भी है और अनूठी तरह से एक सार्वभौम राजनीतिक मुहावरे की भंगिमा को स्पर्श करने में भी समर्थ हो पाता है। ‘निरंकुश सत्ता की हर क्रिया दासत्व के गंभीर प्रत्यारोपण का खेल है‘,  जैसी अर्थसमृद्ध पंक्ति उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताओं का मूल्यवान हासिल है।

तुम कभी विदा नहीं हुए    

तुम्हारा फ़ोन आया
मैंने तुमसे बातें की
तुम्हारे शब्द व्यर्थ हुए
 
तुम्हारा फ़ोन नहीं आया
मैंने तुमसे बातें नहीं की
‘शब्द व्यर्थ नहीं हुए’
यह पंक्ति कितना सुख देने वाली है
 
तुम मेरे घर आए
मैंने तुम्हें देखा
चाय पिलायी
विदा किया
कुंडी लगायी
ज़ोर से रोयी
 
मगर तुम मुझसे नहीं मिले कभी
तो तुम मेरे घर भी नहीं आए होगे
मैंने तुम्हें नहीं देखा होगा
तुमने नहीं पी होगी कोई चाय
‘तुम कभी विदा नहीं हुए’
यह पंक्ति कितनी सुंदर है

 

सलगी सिल गयी    

सलगी सिलते-सिलते शरद की धूप में सो चुकी
औरतों के देह पर धूप की घास उग आई है
और उनके गालों पर गोल शीशे के फूल
चिथड़ों से तोशक-सलगी बनाती स्त्रियां
जीवन को नहीं टांक पाने का सब मलाल
कजरी सिलते वक़्त निकालती हैं
इतने कलात्मक तरीके से दुःख या तो
पृथ्वी सिलती है
या स्त्री

 

उसने कहा    

उसने कहा
तुम बहुत प्यारी हो आन्ना
और पृथ्वी सिकुड़ कर
एक शब्द बन गयी
 
उसने होंठों पर फेरी उंगलियाँ
नदी सिकुड़ कर एक लकीर बन गयी
 
उसने बालों को सहलाया
सारी पत्तियाँ झड़ कर एक पंक्ति
 
उसने हाँ कहा
उपेक्षाओं का पूरा आकाश
एक विलुप्त भाषा बन गयी
 
फिर एक दिन
उसने उठायी उँगली
उस दिन
सूरज-चाँद
बादल-आकाश
सब उठकर ऊपर चले गये

नुक़्ता 

वह अजीब था
कवि ही होगा
धूप की सीढ़ी पर  चढ़ता था
रात ढले
चाँदनी के साथ उतरता था
उस नदी के किनारे
जिसके पेट में थी कई और नदियाँ
 
वह कहता था
चलो दर्पण के द्वार खोलते हैं
अनुवाद करते हैं
आँखों की भाषा में
 
वैसे होठों की लिपि भी बहुत सुंदर है
तुम्हें शायद आती नहीं होगी
 
मृत्यु के परे
एक सुनसान रात में
उसकी बालों की खुली टहनियों पर
सुगबुगा उठी प्रणय उत्सुक चिड़िया
 
उसके चेहरे पर जाग उठी मुस्कान
और धीमे से
नदी की देह में उतरा चाँद
 
रात के तीसरे पहर कोई राग मालकौंस गा रहा था

चित्र    

मैंने अभी-अभी देखी है एक तस्वीर विप्रलब्धा नायिका की
‌जो गहने उतार कर फेंक रही है बाग की घास पर
अब मैं विप्रलब्ध किसी पुरुष की छवि देखना चाहती हूँ
 
शृंगाररत राजा सावंत सिंह की पेंटिंग देखकर
मैं किशनगढ़ शैली में ढूँढ़ रही हूँ
शृंगाररत रानी की ऐसी तस्वीर जिसमें
राजा ने पकड़ रखा हो दर्पण
 
मुगल शैली के प्रणयनिवेदन के चित्रों
में किनारे खड़ी स्त्रियों के बारे में सोचती हूँ
तो कोफ़्त होती है
लज्जा और थकान के कई भाव उभर आते हैं मन पर
ये दासियाँ फूल, दीप, इत्र, शरबत, जाम, पंखे
लेकर खड़ी रहती हैं चुपचाप
न देखे जा सकने वाले दृश्यों को देखने के लिए विवश
प्रणय कर रही स्त्री भी लज्जा उतारते वक़्त
उसी दासत्व के भाव के अधीन होगी
जिस दासत्व के भाव से गुज़र‌ रही होंगी वे आयाएं
निरंकुश सत्ता की हर क्रिया दासत्व के गंभीर प्रत्यारोपण का खेल है
 
बूंदी शैली में बनी मेघ राग की तस्वीर
दक्कन हैदराबाद शैली में बना राग मालकौंस का चित्र हो
या
मालवा शैली का राग मेघ
गोलकुंडा शैली में राग वसंत
हर शैली में एक पुरुष को घेर कर नाच गा रही हैं कई स्त्रियाँ
हर शैली में पुरुष की सेवा और रंजन करती स्त्रियों
के चेहरों में विवशता के रंग भरने से चूके कैसे गए ये चित्रकार ?
क्या ये पुरुषों के उत्सव में स्त्री की गुलामी के रंग को इंगित करना भूल गए?
 
किरीट, मुकुट, कुंडल ,जड़ाऊहार ,केयूर मुक्ता ,यज्ञोपवीत धारण किए इंद्र उड़ रहे हैं हवा में
अप्सराओं से घिरे हुए  इंद्र के आगे-पीछे
बाँसुरी, वीणा व मंजीरे बजाती अप्सराओं
की आँखों में भुकभुका रहा है
आजादी का स्वप्न
मगर पुरुष चित्रकार राजा को खुश‌ करने के लिए
संपन्न को सम्मानित करने के लिए
आँखों में से स्वतंत्रता के स्वप्न को धो-पोंछकर
उनमें कामना और उल्लास के रंग भर देते हैं
सिगरिया की अप्सरा के तन पर वस्त्र नहीं है
वस्त्रविहीन करती वे कूचियां दु:शासन थी
 
वे स्त्रियाँ जानती थी सृजन के अँधेपन को
साहित्य के बहरेपन को
उनके पास शब्द नहीं थे
उनके पास नहीं थी यथोचित ध्वनियाँ
मगर उनके पास दृष्टि थी
वे शब्दों के पास पहुँचना चाहती थी
वे मुँह खोलना चाहती थी
वे चाहती थी व्यक्त करना अपना दृष्टिकोण
 
उन्हीं स्त्रियों के तप से आज हम में से कुछ लोगों के हाथों में  आ पाई हैं कलम-कूचियां
हमारे कंठ में खदक रही हैं बुलंद आवाज़ें
 
हम उठा सकती हैं आवाज़
हम लिख सकती हैं यथार्थ
हम सचे रंग का कर सकती हैं व्यवहार
 
शायद इसलिए
हम दुःखी स्त्री के चेहरे पर नहीं थोपती हैं हँसी और शृंगार
हम उनके माथे की शिकन को पढ़कर जस का तस लिख देती हैं

यह रात उसे कविताओं के साथ गुज़ारनी है     

उसकी आँखें कविताओं से भारी हैं
उसके कंठ कविताओं से भरे हैं
उसके ओंठ कविताओं से हल्के गुलाबी
उसका देह कविताओं के लिए तत्पर और तैयार है
उसकी साँसों में कविताओं की गमक है
मैंने उसे गर्मजोशी के साथ अलविदा कहा
यह रात उसे कविताओं के साथ गुज़ारनी है

 

सम्पर्क : anuanamika18779@gmail.com

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