कानपुर में जन्मे राजा सिंह मुख्यत: कहानीकार हैं और कभी-कभी कविताएँ भी लिखते हैं. उनकी कहानियाँ हंस, पाखी, कथादेश, कथाक्रम, कथाबिम्ब, कथासमय, बया, उद्भावना, परिकथा, निकट, इन्द्रप्रस्थ, भारती, लमही, वाक, प्रगतिशील वसुधा, आजकल, समकालीन भारतीय साहित्य और अन्य साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके चार कथा-संग्रह ‘अवशेष प्रणय’ (2015), ‘पचास के पार’ (2018), ‘बिना मतलब’ (2020) तथा ‘पलायन’ (2021) प्रकाशित हो चुके हैं। उनके उपन्यास- ‘बनियों की विलायत’ (2021), ‘अंततः’ (2022) और ‘प्रतिकारिणी’ (2024) भी प्रकाशित हैं।
कथाकार राजा सिंह की यह कहानी छोटे कस्बों के परिचित संसार में ले जाती है। बिना किसी सनसनीखेज घटनाक्रम के यह कहानी बेहद आहिस्ते से समकालीन राजनीति और समाज-व्यवस्था की परतों को खोलकर सामने रख देती है। पूरे देश में जाने कितने किथोरा हैं और कितने रमजान मियां। आज के बदले हुए परिदृश्य में प्रगतिशील विचारधारा और राजनीति का निरंतर हाशिये पर चले जाने और मुख्यधारा में मौजूद सांप्रदायिकता, जातिवाद और उपभोक्तावाद जैसे विचलनों को यह कहानी बहुत सलीके से बयान करती है।
प्रवेश जब इस कस्बे में आया था, उसे अच्छा नहीं लगा था. वह महानगरीय जिंदगी जीने का अभ्यस्त, यह ज़िंदगी ठहरी-ठहरी सी, एकांत से बोझिल और उकताई हुई लगी. कुछ नए, रोचक और अच्छे की तलाश में वह कस्बे की हर गली में घूमा-फिरा था. शायद ही कोई गली बची हो, जहाँ वह न गया हो. वह हर जगह घूमता था, इसलिए नहीं कि उसे घूमना बहुत पसंद था, बल्कि एक कारण और था, वह यहाँ की सम्पन्नता का भी राज जानना चाहता था. ऐसा क्या है जो इसे एक बड़े शहर के संपन्न इलाके का रूप देता था और इसका बाज़ार महानगर के किसी एक बाज़ार के दृश्य का आभास कराता था. ‘किथोरा’ उसे कुछ-कुछ भाने लगा था.
कुछ दिनों पूर्व उसकी तनख्वाह राष्ट्रीय बैंक में जमा हुई थी. उसने अपने लिए एक शर्ट-पैंट का कपड़ा खरीदने का इरादा किया. उसने जीवन से मंत्रणा की. जीवन तुरंत उसे लेकर अपने चाचा की दूकान पर गया. वह चाचा से परिचय करा कर कुछ देर रुका. जब चाचा, उनका पुत्र और नौकर उसे कपडे दिखलाने लगे तो वह धीमे से खिसक गया. उसने एक सेट पसंद किया. उसने उनके बतलाये दाम दिए. वे अतिरिक्त प्रसन्न हुए, शायद उन्हें नकद भुगतान की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने नौकर को चाय लाने का आर्डर दिया और चाय पीकर जाने का अनुरोध किया. उसे अच्छा लगा, जीवन के कारण उसे कम भुगतान करना पड़ा, जैसा कि चाचा जी ने कपड़े के दाम बताने के समय कहा था और उसे अब अतिरिक्त सम्मान मिल रहा था चाय के रूप में.
-“चाचा जी, आपके पास अच्छा कलेक्शन है और काफी वैराइटी है, रेंज भी अच्छी है. आपका बिज़नेस अच्छा चलता होगा. उसने कुछ बात करने की नियत से कहा.”
-“कहाँ, बेटा? बेकार का धंधा है. यहाँ सब कुछ उधारी का काम है.”
– “क्यों ऐसा क्यों? उसे उत्सुकता हुई.”
– “लोकल के बन्दे तो सब बाहर शहरों से खरीदते है. आसपास के गाँव के लोग ही खरीदते है, त्यौहार या शादी ब्याह आदि में और उनके पास नकद कहाँ?” उन्होंने यह कहकर बुरा सा मुँह बनाया. वह अचरज से अभी निहार ही रहा था कि वह फिर बोले …
– “ऐसा है कि यहाँ के किसान के पास, साल में दो बार पैसा आता है, जब वह अपनी गेहूँ और गन्ने की फसल बेचता है, बाकी समय उसके पास तो खर्चा ही खर्चा है. इस कारण उधारी का भुगतान छै महीने से पहिले नहीं हो पाता है और कभी कभी वह भी पूरा नहीं होता अगले सीजन के लिए टल जाता है.”
– “तो उधार मत दिया करें. उसने बिना सोचे विचारे कह दिया.”
– “बेटा ! तब तो बिक्री ठप्प. बिना उधारी के सामान कौन खरीदेगा? शायद पुरे दिन एक भी ग्राहक न मिले… वैसे उधारी पर बिक्री करने का एक फायदा तो है, ग्राहक मोलभाव नहीं करता और कभी-कभी तो दाम भी नहीं पूछता. किताब में कुछ लिख लो.”
– “आसानी से समय पर बकाया आ जाता है?”
– “अरे! कहाँ ? काफी तगादा कराना पड़ता है. नौकर को साइकिल देकर दौड़ाना पड़ता है, फसल बिक्री के समय, नहीं तो छै माह और साल भर भी भुगतान न मिले.”
– “अच्छा, उसने मायूसी जाहिर की.”
– “बेटा, छोटी जगह में किसी भी चीज की बिक्री बिना उधार के संभव नहीं है. आप बैठे रह जाओगे और अगला कमा खा रहा होगा. आप झुनझुना हिलाते रह जाओगे.”
चाय आ गयी थी. चाय पीते-पीते, चाचा जी उसके घर-परिवार आदि के विषय में जानकारी करते रहे और वह अपने जवाबो से उन्हें संतुष्ट करता रहा.
जीवन से ही उसने स्थानीय दर्जी के विषय में पूछताछ की तो उसने बुरा सा मुंह बनाया और बोला, “मैं क्या ज़्यादातर लड़के शहर के टेलर से अपने कपड़े सिलवाते हैं.” फिर बड़ी मुश्किल से उसने एक मॉडर्न टेलर शंकर और एक पुराने टेलर रमजान अली की दुकान का पता बताया. रमजान अली की दुकान ऊपर थी, नीचे मकान मालिक की परचून की दूकान, जिसके बगल से जीना ऊपर दुकान पर जाता था.
वह दरमियाने कद के पचास के आसपास उम्र, इकहरे बदन के, बिना दाढ़ी-मूंछ के सफेद कुर्ता-पायजामा पहने, टेलर कम नेता ज्यादा लगते थे. उनके होंठो पर तम्बाकू दबी थी जो यहाँ के लोगों द्वारा कम प्रयोग में लायी जाती थी. यहाँ के लोग बीड़ी-सिगरेट का प्रयोग ज्यादा करते थे. वे स्वयं ज़मीन पर एक कोने में बैठे थे और उनके सामने लकड़ी का एक पटरा था जो ज़मीन की सतह से लगभग एक फुट ऊँचा और तीन बाई पाँच फुट की लम्बाई-चौड़ाई में फैला हुआ था. उसपर एक मोटी नीली चादर बिछी हुई थी. इसी पर वह कपड़ों की कटिंग किया करते थे. उनकी अपनी एक हाथ की सिलाई-मशीन थी, जिसे वह जरूरत के मुताबिक खुद चलाया करते थे और इस समय वह उसी तखतनुमा मेज पर अपनी हाथ की मशीन से सिलाई कर रहे थे. कमरे के दूसरे कोने में दो लड़के पैर वाली मशीन पर बैठ कर सिलाई कर रहे थे. एक ओर रमजान मियाँ का बेटा तैयार कपड़ों पर इस्तरी कर रहा था, उसका काम तुरपन करना और काज बटन टांकना भी था. ग्राहकों के बैठने के लिए बाकी फ़र्श पर एक मोटी दरी बिछी हुई थी, जिस पर एक चाँदनी बिछी हुई थी. दुकान एकदम पुराने परिवेश में थी.
प्रवेश दरवाजे से दाखिल होता हुआ, मास्टर साहब! कहते हुए, प्रश्नवाचक निगाहों से उनकी तरफ मुखातिब हुआ.
“आईये..आईये ..तशरीफ़ रखिये.” रमजान मियां ने अपने सामने बैठने का इशारा किया. उसने जूते दरवाजे के पास उतारे, जहाँ फ़र्श नंगा था और कपड़े उनकी सामने कटिंग चौकी-तख्त पर रखे और चाँदनी पर बैठ गया. उन्होंने इंची टेप से कपड़ों की नाप की, कपड़ों की क्वालिटी परखी. उसकी शर्ट-पैन्ट्स की नाप ली और फिर अपनी गद्दी पर बैठ गए.
अचानक प्रवेश के भीतर एक शक बैठ गया- क्या यहाँ आकर उसने ठीक किया? क्या यह मास्टर उसके कपड़ों के साथ न्याय कर पायेगा. कहीं उसके कपड़ों का सत्यानाश न कर दे. लखनऊ में वह सबसे अधिक आधुनिक टेलर्स पर जाया करता था और बेस्ट फिटिंग के कपडे पहनता था. वह उसका पुराना टेलर था. कहते भी हैं कि दर्जी और नाई जल्दी नहीं बदलने चाहिए. उसे कुछ अफ़सोस सा हो आया था कि वह शंकर टेलर के पास क्यों नहीं गया? परन्तु अब वह क्या करे? अक्सर उसका मन कम चलने वाली दुकानों की ओर चला जाया करता था. वह सोचता था कि उस जैसे लोग अगर इन लोगो के पास आते रहेंगे तो इनकी भी रोटी रोजी चलती रहेगी. वह सोचता था कि इन लोगों के पास भी अच्छा हुनर है और काम अच्छा हो जाता है, परन्तु ताम-झाम न होने की वजह से ये लोग काम से वंचित रह जाते हैं, जो इन्हें भुखमरी तक घसीट ले जाती है.
“मियां! चिंता न करो, बहुत अच्छी फिटिंग दूँगा. अगर आपके दिमाग में कोई डिज़ाइन हो तो मै वैसा ही बना दूँगा.” मास्टर ने उसका शक पकड़ लिया था.
“हैं.! ऐसा है? क्या शर्ट में आप ऐसी जेब लगा सकते हैं…” यह कहकर उसने एक कागज पर जेब की डिज़ाइन कर दी.
“हो जाएगी..बस दो दिनों बाद आप इसी समय आ जाइयेगा. आपके सामने ही मैं आपके मन-मुताबिक बना दूँगा, और न भी आ सके तो भी इस कागज के आधार पर मै ऐसी ही जेब फिट कर दूँगा.” मास्टर ने उसे आश्वस्त किया. उसके जेहन में उतर आयी व्यर्थता के अहसास का निराकरण होने से उसे राहत मिली. मास्टर के पास इस समय कोई और ग्राहक नहीं था. लड़के अपने-अपने काम में लगे थे.
– “मियां! नए हो?”
– “हाँ! उसने अपने विषय में सम्पूर्ण जानकारी दी.”
– “कहाँ से कपड़ा लिया? उसकी जिज्ञासा बढ़ी.”
– “साहू जमुना प्रसाद से.” और उनसे क्यों लिया इसका भी सन्दर्भ स्पष्ट किया.
– “क्या भाव का दिया?” उसने उन्हें बताया. अब की बार उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी.
– “आपको भी नहीं छोड़ा? काट ली जेब? मार्किट रेट से भी ज्यादा हैं इसके दाम.” उन्होंने अफ़सोस की मुद्रा में मुंह बनाया.
– “यह बनिया किसी को भी नहीं छोड़ते. इनके लिए कोई सगा नहीं. ये बनिए बनते ही ऐसे हैं.” उसे बुरा लगा. उसे चाचा जी अच्छे आदमी लगे थे. परन्तु वह प्रतिवाद में पड़ना नहीं चाहता था कि कौन गलत है और कौन सही. किन्तु पता नहीं क्यों उसे यह महसूस हो रहा था कि मास्टर साहब क्यों झूठ बोलेंगे? उनके लिए तो साहू साहेब तो उसके अपने हैं जबकि वह अनजान और अपरिचित.
– “इस छोटी जगह में,उधार ही तो बहुत बिकता है. उसने बिना सोचे-समझे उनका बचाव करने के कोशिश की.”
– “उधार देते हो तो क्या पैसे वापस नहीं लेते हो? अरे .! ये दुकानदार जानबूझकर उधार चढ़ाने की कोशिश करते हैं. लेने जाओ हज़ार का, दे देंगे तीन हज़ार का. जब आप कहोगे कि मेरे पास इतने पैसे नहीं है, तो कहेंगे कि, आ जाएंगे क्या जल्दी है? कहीं भागे जा रहे? इस तरह से धर्म के दूने इकट्ठे करते हैं.” प्रवेश को बातचीत में दिलचस्पी आने लगी थी. उनकी चाय आ गयी थी. उसे भी जबरदस्ती दी गयी, वह मना करता रह गया.
– “बनिया-बनिया की काट जानता है, इसलिए ये आपस में लेनदेन कम करते हैं.”
– “मगर यह तो समृद्ध इलाका है. उसने युक्ति दी.”
– “भईया! सारी समृद्धि इन बनियों में ही सिमट आयी है. बाकी लोग तो रोटी-दाल ही चला पा रहे हैं …. अभी आपको कितने दिन ही हुए हैं? समय के साथ सब समझ जाओगे. कभी सुभाषनगर और बाल्मीकिनगर इलाके में जाओगे तो पता चलेगा कि इस किथोरा में कैसी समृद्धि है?”
– “क्यों? वहाँ ऐसा नहीं है, जैसा यहाँ है.” वह वाकई में वहाँ नहीं गया था. उसके दोस्तों ने भी कभी न उसका जिक्र किया था न कभी उधर से उनके साथ गुजरे थे.
– “नहीं.. बिलकुल नहीं..! सुभाषनगर में ज्यादातर अनुसूचित जातियाँ रहती है और मुस्लिमों की आबादी है. जबकि बाल्मीकिनगर में हरिजन यानि भंगी लोग रहते तथा कुछ घर मुस्लिमों के भी हैं…. वहाँ की आबादी के घर और रास्ते, सड़क आदि देख लो, तो मन गिजगिजा जायेगा… सोचोगे कैसे रहते हैं ये लोग? ज्यादातर घरों में सर्विस लैट्रीन है और सार्वजनिक हैण्डपम्प. इन जगहों में आदमी से ज्यादा आबादी है मुर्गियों, बकरों, भैसों और सुअरों की, जो पूरी बस्ती में लोटते नज़र आते हैं.”
– “मगर मैंने कुछ घर सरदारों और मुस्लिमों के देखे है जो काफी रईस लगते हैं…”, उसने अपनी धारणा को खंडित हो जाने से रोकने का भरसक प्रयास किया.
– वह शोपीस हैं इस समाज के, और वे वह लोग हैं जिन्होंने बनियागिरी अपना ली है..” मास्टर साहब ने उसके अपवाद की धज्जियाँ उड़ा दीं.
– “नगरपालिका कुछ नहीं करती, उनके इलाके में सुधार के लिए?”
– “वहाँ भी उनका ही कब्ज़ा है. नब्बे प्रतिशत बनिया सभासद हैं और चेयरमैन तो सदैव अग्रवाल ही होता आया है. दस प्रतिशत गैरजातीय, वे यही शोपीस वाले समृद्ध लोग हैं जो बाल्मीकिनगर और सुभाषनगर का प्रतिनिधित्व करते हैं.”
– “आपको इन निम्न समुदायों का इतना ख्याल है, तो आप क्यों नहीं इनका प्रतिनिधत्व करते हैं?
– “यह करके भी देख लिया. दो बार सभासद के लिए खड़ा हुआ, एक बार बाल्मीकिनगर से और एक बार सुभाषनगर से. दोनों बार १५-२० से ज्यादा वोट नहीं मिले.”
– “क्यों! इन निम्न वर्ग के लोगों ने आपका साथ नहीं दिया?”
– “भइये! कम्युनिस्टों को लोग अपनी लड़ाई का जिम्मा तो सौंप देते हैं, परन्तु वोट तो वे अपनी जाति-धर्म और पैसे वाले के हिसाब से ही देते हैं.”
– “आपके धर्म वाले तो एकजुट होकर वोटिंग करते है. फिर आप क्यों नहीं?”
– “मै कम्युनिस्ट हूँ. मैं धर्म नहीं मानता. मैं कभी नमाज पढ़ने मस्जिद नहीं जाता, कभी रोजा आदि नहीं रखता. वे मुझे मुस्लिम मानते कब हैं?.. यहाँ धार्मिक और पूंजीवादी दलों को चाहने और मानने वाले हैं. कम्युनिस्टों की क्या बिसात?”
बातों-बातों में शांतचित्त मास्टर रमजान अली उत्तेजित हो गए थे. माहौल में तनाव पसर गया था. लड़के अपने-अपने काम में मशगूल थे. उसने मास्टर साहब से चलने की इजाजत ली और अपने कमरे की तरफ निकल पड़ा.
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