वरिष्ठ कवि-आलोचक चंद्रेश्वर का यह संस्मरण केवल इस विधागत रूप में प्रस्तुत एक कवि का आत्मकथ्य नहीं है, बल्कि आजादी के बाद के भारत में बड़े हो रहे एक संवेदनशील युवा के बौद्धिक मानस की निर्मिति का जायजा भी है। एक तरफ पारिवारिक पृष्ठभूमि और संस्कार हैं और दूसरी तरफ किताबों के अध्ययन से मिलने वाली बौद्धिक उत्तेजना; इनके द्वन्द्व से किस तरह एक युवा न केवल अपनी बौद्धिक प्रखरता अर्जित करता है बल्कि रचनाधर्मिता का रसायन भी प्राप्त करता है। यह संस्मरण इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि बदलते सांस्कृतिक-साहित्यिक परिदृश्य की एक बानगी भी इसके माध्यम से हमें हासिल होती है। भोजपुरी अञ्चल के एक रूढ़िवादी परिवार से जनवादी सरोकारों तक पहुँचने और एक प्रगतिशील और तार्किक व्यक्तित्व के रूप में विकसित होने की यह यात्रा सचमुच दिलचस्प है।
मेरे बाबा के काका को घर में बच्चे प्यार से गोला बाबा कहते थे। वे बनारसी पंडित थे। वे बनारस में ही रहकर वैयाकरण और साहित्याचार्य हुए थे। उनको अपने समय में राष्ट्रपति द्वारा ' लघुशब्देन्दुशेखर' की उपाधि मिली थी। वे बनारस से जब भी गाँव आते थे तो एक बड़े पीतल के लोटे में छेने का रसगुल्ला भरकर लाते थे। इस तरह रसगुल्ला खिलाने वाले बाबा 'गोला बाबा' बन गए थे।
कोई उन्नीसवाँ बरस रहा होगा मेरे जीवन का उस बरस। मैं जैन कॉलेज, आरा में इंटरमीडिएट विज्ञान का विद्यार्थी था। कोई डेढ़-दो बरस पहले इस क़स्बे में पहुँचा था। सीधे गाँव-देहात से। दियारा इलाक़े के सिमरी ब्लॉक के आशा पड़री गाँव से। एक रूढ़िवादी कट्टर पुरोहित परिवार से। हमारे जैसे लड़कों के लिए यह भोजपुरी अंचल का कस्बा ऑक्सफोर्ड से कम नहीं था। मैं शुरूआत के दिनों में आधुनिक परिवेश एवं साहित्य के नए संस्कारों और नयी गतिविधियों से एकदम अपरिचित था। आरा आने के पहले दो-तीन बार ही रेलगाड़ी पर चढ़ा था। तबतक कोई फ़िल्म-विल्म भी नहीं देख पाया था मैं। गाँव में दशहरे के अवसर पर होने वाली रामलीला ज़रूर देखी थी मेंने। रामलीला दिखाने या खेलने वाली मंडलियाँ ज़्यादातर अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की हुआ करती थीं। मेरे गाँव में एक ‘नाट्य कला मंच’ भी था। उसके संरक्षक और निर्देशक थे पंडित रघुनाथ पांडेय जो अपने गाँव और उसके आसपास की बड़ी आबादी के पुरोहित भी थे। वे दुबली-पतली काया और लंबी क़द-काठी वाले मिलनसार और सामाजिक व्यक्ति थे। वे हिन्दू समाज के निम्न वर्णों या जातियों के यहाँ भी निःसंकोच और बिना किसी भेदभाव के पुरोहिती करने जाते थे। वे नाट्यकला के भी शौकीन थे। उनके प्रयत्नों से हर साल गाँव में किसी न किसी नाटक का मंचन हो जाता था। नाटकों में वे और उनके दोनों बेटे भी किसी न किसी मुख्य चरित्र की भूमिका में होते थे। उन्होंने मरने के पहले यह इच्छा ज़ाहिर की थी कि जब वे मर जायें तो श्मशान में एक तरफ़ उनकी चिता जले तो दूसरी तरफ़ कोई प्रहसन या लघु नाटक का भी मंचन हो। उनकी एक नौटंकी ‘अमर सिंह राठौर’ के मंचन का मुझपर इतना गहरा असर था कि मैं लंबे अरसे तक उसके बोल गुनगुनाता रहता था, “तेरी बाँकी अदा पर मैं ख़ुद ही फिदा, तेरी चाहत का दिलबर बयाँ क्या करूँ!”
मेरा साहित्य से उतना ही नाता था जितना स्कूली पाठ्यक्रमों में हिन्दी या अँग्रेज़ी विषयों के माध्यम से पढ़ सका था। मैंने हिन्दी में तब तक मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला, प्रसाद, पंत, बच्चन, नेपाली, वियोगी हरि, जानकीवल्लभ शास्त्री की कुछ कविताएँ; प्रेमचंद, उग्र, कौशिक, सुदर्शन, राधाकृष्ण, रेणु, महीप सिंह की कुछ कहानियाँ पढ़ रखी थी। रेणु की कहानी ‘ठेस’ या महीप सिंह की कहानी ‘पानी और पुल’ पढ़ते हुए मैं कुछ उदास हो जाया करता था। मेरी आँखें भर आती थीं। प्रेमचंद को पढ़ते हुए सहजता बनी रहती थी। मैंने रामवृक्ष बेनीपुरी का निबंध ‘गेहूँ और गुलाब’, सरदार पूर्ण सिंह का ‘मज़दूरी और प्रेम’ पढ़ा था। इनकी भाषा की सहजता और रवानी विशेष ध्यान आकर्षित करती थी।
ऐसे ही हिन्दी और अँग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत में मेरे बाबा के काका पंडित भृगुनाथ पांडेय ने मुझे बचपन में ही अपनी संगत में रखकर कुछ देवी-देवताओं के श्लोकों और वैदिक ऋचाओं को बोल-बोलकर कंठस्थ करा दिया था। मेरे बाबा विश्वनाथ पांडेय एक पक्के किसान थे जो सिर्फ़ अक्षर पहचानने भर की पढ़ाई पढ़ सके थे। उनके बारे में यह क़िस्सा मशहूर था कि वे किसी स्कूल में टिक नहीं पाते थे ; जबकि उनको पढ़ाने-लिखाने के लिए परिवार के बड़े-बुजुर्गों ने बड़ी-बड़ी कोशिशें की थी। मेरे बाबा कभी पूजा-पाठ या कर्मकांड में नहीं फँसे थे। वे अपने गाँव के एक बेहतरीन किसान थे जो सिर्फ़ खेतों में उत्तम फ़सलें उगाना जानता था। मेरे बाबा जब पचहत्तर-अस्सी की उम्र में कुछ अशक्त हुए तो घर में खेतीबारी कमज़ोर पड़ने लगी थी। ये सन् 1990 के आसपास की बात है। वे अपने अंतिम दिनों में तुलसी कृत ‘रामचरित मानस’ का धीमी गति से पाठ करने लगे थे। उनकी मृत्यु अक्टूबर-नवंबर 1996 में हुयी थी। मेरे बाबा के काका के पिता देवदत्त पांडेय ‘शास्त्री’ थे जो वर्तमान बिहार के एक मशहूर ज़िले गोपालगंज में सहस्राब्दियों से स्थापित महत्वपूर्ण ‘हथुआ राज’ में सन् 1932 के आसपास पुरोहित थे, जिनकी मृत्यु अल्पायु में ही हो गयी थी। कोई पचास के आसपास ही रहे होंगे वे। मेरे बाबा के काका को घर में बच्चे प्यार से गोला बाबा कहते थे। वे बनारसी पंडित थे। वे बनारस में ही रहकर वैयाकरण और साहित्याचार्य हुए थे। उनको अपने समय में राष्ट्रपति द्वारा ‘ लघुशब्देन्दुशेखर’ की उपाधि मिली थी। वे बनारस से जब भी गाँव आते थे तो एक बड़े पीतल के लोटे में छेने का रसगुल्ला भरकर लाते थे। इस तरह रसगुल्ला खिलाने वाले बाबा ‘गोला बाबा’ बन गए थे। वे नि:संतान थे, पर अपने चचेरे भाई-भतीजे के परिवार को ही अपना मानते थे। वे जब भी गाँव आते थे तो हमेशा घर के बच्चों को साथ में रखते थे। वे हमलोगों को संस्कृत के श्लोकों को रटवाने के साथ-साथ ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ भी पढ़ाते थे। मेरे पिता जी प्रायमरी स्कूल के शिक्षक थे। मेरी माँ भी अक्षर ज्ञान तक ही पढ़ी थी। मेरी माँ ने कभी यह इच्छा नहीं जाहिर की कि मुझे पढ़-लिखकर क्या बनना है! मेरे पिता जी की ज़रूर इच्छा थी कि मैं कोई कमाऊ पद पा लूँ, पढ़-लिखकर। वे मुझे अधिक से अधिक जूनियर सिविल इंजीनियर (ओवरसियर) या दारोगा के पद पर सुशोभित होते देखना चाहते थे। पर नियति को यह कहाँ मंज़ूर था! गोला बाबा मुझे संस्कृत का विद्वान और कर्मकांडी बनाना चाहते थे। उनकी पत्नी जिन्हें हमलोग प्यार से बुढ़िया मइया कहते थे, वो अक्सर कहती थीं कि ‘पढ़ब-लिखब बनब नबाब, खेलब-कूदब होइब ख़राब!’ इस तरह घर में मैं किसी की उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाया था। बहरहाल, जब मैं तेरह बरस का था, गाँव में यजमानों के यहाँ तेरही कराने चला जाता था। विवाह भी कराने लगा था। हर पूर्णमासी के दिन कई घरों में सत्यनारायण की कथा बाँचता-सुनाता था। बगल के गाँव भरौली में कुछ यादव परिवार मेरे यजमान थे। वहाँ भी जाता था। मेरे साथ मेरे चचेरे भाई अशोक जी भी यह काम करते थे। हमलोगों को जो भी दक्षिणा मिलती थी, नगद या सामान के रूप में, उसे हमलोग अपनी-अपनी माँ को दे देते थे। कभी किसी यजमान के कहने पर गाँव के बाहर किसी ब्रह्म स्थान पर भी हमलोग कथा बाँच आते थे। मेरे यजमानों में ज़्यादातर ऐसे थे जो अक्सर दान-दक्षिणा के सवाल पर खिच-खिच या विवाद खड़ा करते थे। मुझे ऐसे मौकों पर बारंबार अपमानित होना पड़ता था। इससे मेरे किशोर मन को गहरी ठेस पहुँचती थी। ऐसे कृपण और अनुदार माहौल में ही धार्मिक रूढ़ियों और कर्मकांड के प्रति मेरे मन में वितृष्णा का भाव पैदा हुआ होगा।
जो भी हो, बचपन से ही मुझे ‘रामचरित मानस’ का पाठ प्रिय था। हालांकि इस पाठ को गोला बाबा पसंद नहीं करते थे। उनका मानना था कि बच्चे भाखा के संपर्क में आकर बिगड़ जाते हैं। संस्कृत पढ़कर ही मौलिक विद्वान बना जा सकता है। वे संस्कृत में भी व्याकरण पर विशेष बल देते थे। उनको ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ कंठस्थ थी। वे लंबे और छरहरे बदन के थे। उनका रंग गेहुवाँ था। उनके सिर के बाल काले-काले और घुँघराले थे, भ्रमरों की तरह। वे उन बालों को रीठा से धोते थे। उनमें नींबू की हरी पत्तियों को पीसवाकर लगाते थे। सप्ताह में एक बार। उनकी मूँछें घनी थीं। वे धोती और मिरजई पहनते थे। वैदिक मंत्रों और श्लोकों के पाठ का उनका तरीका अन्यतम था। उनके स्वर में गाम्भीर्य था। शब्दों के उच्चारण एवं स्वर के आरोह-अवरोह के समय उनकी मुखमुद्रा देखते बनती थी। उनकी उँगलियों का संचालन भी अद्भुत हुआ करता था। ऐसे अवसरों पर वे एक जादुई वातावरण की सृष्टि कर देते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई वैदिक काल का ऋषि हो! गोला बाबा का यह एक विरल रूप था।
मेरे गोला बाबा महीना में पंद्रह-बीस रोज़ बनारस में रहते थे और बमुश्किल दस रोज़ गाँव पर। ये दस दिन सबके लिए महीना दिन पर भारी पड़ते थे। क्या औरत, क्या मर्द, क्या बच्चे – सब उनके कार्य में व्यस्त रहते थे। उनसे पूरा घर आतंकित रहता या थरथराता रहता था। वे गुस्से में किसी को गाली दे सकते थे या लोटा-डोर से प्रहार कर सकते थे। कोई उनकी पूजा के लिए फूल लाने निकलता तो कोई बेलपत्र लाने। कोई गंगाजल लाने निकलता तो कोई फलाहार का इंतजाम करने। घर में अलग से कोई औरत ठाकुर जी का भोग लगाने के लिए दूध गरम करती या लौकी की खीर या हलुवा बनाती तो कोई नींबू की पत्तियों को सिलबट्टे पर लोढ़े से पीसती। कोई उनके कपड़े साफ़ कर रही होती। वे नयीआई बहुओं की तारीफ़ भी करते, कभी-कभार। उनके रहते घर का माहौल बदल जाता था। एक तरह का अनुशासनात्मक वातावरण निर्मित हो जाता था। मुझे कुछ अजीब-सा महसूस होता था। ऐसा प्रतीत होता कि मानो घर भर की आज़ादी का उन्होंने जबरिया हरण कर लिया हो। सबके दिमाग़ पर उनकी सोच ही हावी हो जाती थी। वे अगर गाँव में हमलोगों को कहीं घूमते देख लेते थे तो आगबबूला हो जाते थे। वे संस्कृत के आगे हिन्दी को कुछ नहीं समझते थे। उनकी मृत्यु नवंबर 1993 में काशी में ही हुयी थी। वे जब मरे थे तो उनकी उम्र हो रही थी 88 साल की। वे आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के हमउम्र रहे होंगे। वे बनारस में किसी सिलसिले में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी से एकाध बार मिले थे। जब बनारस में सन् 1936 में प्रेमचंद की मृत्यु हुयी थी तो वे वहाँ पर विद्यार्थी थे। वे प्रसाद जी से भी परिचित थे। कभी जब वे सहजावस्था में भी होते थे तो हिन्दी के कवियों और लेखकों की चर्चा करते हुए एक नाराज़गी का भाव उनके चेहरे पर आ ही जाता था। वे कालिदास या बाणभट्ट के सामने हिन्दी वालों को तुच्छ या हीन समझते थे। वे इस तरह संस्कृत के प्रति आबद्ध या मोहासक्त थे कि हिन्दी उनको विद्वानों की भाषा नहीं लगती थी।
दरअसल गोला बाबा का व्यक्तित्व बँटा हुआ था। वे गाँव या बनारस में बाहर के लोगों से व्यवहारिक होकर बात करते थे तो घर में तानाशाह की भूमिका में आ जाते थे। वे जैसे-जैसे बूढ़े होते गए, उनका आतंक कम होता गया था। वे गाँव में किसी व्यक्ति के प्रश्नों का उत्तर तुकबंदी में ही देते थे। कोई उनसे पूछता कि “पंडी जी आपके पाँव में जूते नहीं हैं” तो वे झट बोलते थे कि “जूते तो पहनते हैं कुत्ते” कोई कहता उनसे कि “गुरू जी, आम तो पक चले” तो वे कहते तपाक से कि “यजमान अब खाट बिछाओ हम तो थक चले”, किसी ने एकबार पूछा कि “पंडी जी इधर से फूल मियाँ गए हैं?” तो उनका उत्तर मिला था कि “फूल को तो पुल पर देखा था अभी !”
उनके बारे में एक क़िस्सा मशहूर है। एकबार वे बगल के गाँव सिमरी में गए तो सुबह-सुबह एक संपन्न किसान और विज्ञान शिक्षक चंद्रमा राय के दरवाजे पर एक लगहर गाय दूही जा रही थी। जब चंद्रमा राय मास्टर साहब ने पूछा कि, “पंडी जी, आपका पेट बड़ा है कि गाय का थन?” तो वे बोले थे कि “मेरा पेट बड़ा है!” इसके बाद चंद्रमा मास्टर साहब ने पूरी बाल्टी का दूध उनको पीने के लिए दे दिया था। बहरहाल, मैं भी किशोरावस्था में ही गोला बाबा की तरह मन ही मन तुकबंदियाँ गढ़ने लगा था। शायद मेरे कवि बनने की आरंभिक प्रक्रिया यही रही हो।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि हिन्दी कवियों में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर ‘प्रसाद’, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ , हरिवंश राय ‘बच्चन’, रामधारी सिंह ‘दिनकर ‘ आदि का प्रसंग आने पर मेरे गोला बाबा नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे। वे संस्कृत के क्लासिकल कवियों के आगे अन्य देशी भाषाओं के कवियों-लेखकों को हीनतर मानते थे। वे संस्कृत भाषा की श्रेष्ठताग्रंथि से बुरी तरह जकड़े हुए थे। वे समाज और साहित्य में नवजागरण से पैदा हुयी आधुनिक चेतनादृष्टि या जनतंत्रात्मक विचारधारा से पूरी तरह असंपृक्त थे। वे प्राचीन और कुछ हदतक मध्यकालीन जीवन मूल्यों एवं शैलियों से सम्बद्ध थे। वे अपने समकालीन समय से बाहर थे। वे बनारस में करपात्री जी महाराज की रामराज्य परिषद से भी जुड़े थे। वे चुनाव में अपने नजदीकी प्रत्याशियों को समर्थन देते थे। उनसे बहस या संवाद की बात सोचना बेमानी था। वे जिन कट्टर और रूढ़िवादी प्रवृत्तियों से बँधे थे, उनसे उनको छुटकारा दिलाना या उनको बदल पाना संभव नहीं था। वे ट्रेन में या बस में सफ़र करते समय भी लोटा-डोर साथ में रखते थे। वे देह में या बाल में साबुन नहीं लगाते थे। वे कुएँ का पानी या गंगाजल पीते थे, चापाकल का नहीं। वे कहते थे कि इसमें चमड़े का वाशर लगा है। वे कहीं भी भोजन नहीं करते थे। वे बाहर सफ़र में चने का सत्तू लेकर चलते थे। कहीं मौका मिला तो कंडे या उपले जलाकर अपने लोटे पर ही रोटी बना लेते थे, हाथ से ही रोटी गढ़कर। वे अस्पृश्यता में यक़ीन करते थे। वे कोर्ट-कचहरी में वकीलों या पेशकार वगैरह से काम लेने की कला में माहिर थे। मेरे गाँव के दक्षिण में मुसलमानों और दलित जातियों का गाँव था, पैलाडीह। इसी गाँव के बारे में मेरे गाँव के हिन्दी-भोजपुरी के कवि-कथाकार चंद्रधर पांडेय कमल’ ने लिखा है कि ‘पहिल डीह रहे पैलाडीह, पुण्यअरि नाम रहे पड़री के।’ यानी पहले हमारा गाँव यहीं पर था। बहरहाल, पैलाडीह में कुछ शेख और सैयद मुस्लिम परिवार भी रहते थे। उनमें से कोई बुजुर्ग अगर मेरे घर आता था तो बाबा उनको साथ में खाट पर भी बिठाते थे और उनका बहुत आदर-सत्कार भी करते थे। वे गाँव में दो वर्चस्वशाली विपरीत सत्ता-केन्द्रों से भी समान भाव से जुड़े थे। मेरे गाँव में बहुसंख्यक आबादी तिवारी सरनेम वाले सावर्ण गोत्र के सरयूपारी ब्राह्मणों की है। इनमें से ही दो परस्परविरोधी तिवारी सत्ताकेन्द्र हुआ करते थे। एक थे नागेश तिवारी और दूसरे थे लक्ष्मी तिवारी। नागेश तिवारी आज़ादी के बाद हुए पहले दो पंचायत चुनावों में मुखिया भी चुने गए थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बगल में भूमिहारों के बड़े गाँव सिमरी में अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में ऐन मौके पर भाले से दो भूमिहार भाइयों को मार गिराया था। इस घटना के बाद पूरे जवार-पथार में उनके नाम का आतंक व्याप्त हो गया था। पर उनके धुर विरोधी लक्ष्मी तिवारी ने ही उनके वर्चस्व को तोड़ा था। एक मुस्लिम परिवार को साथ लेकर। मेरे गोला बाबा इन दोनों वर्चस्वशाली सत्ताकेन्द्रों से संतुलन बनाए रखते थे। वे इन्हें समय-बेसमय आर्थिक मदद करते रहते थे। वे सूद पर पैसा चलाते थे और रेहन ज़मीन खरीदते थे। हालांकि इस पेशे में वो अंततः बुरी तरह विफल हुए थे। 1970-71 में इंदिरा गाँधी की सरकार ने भूमि सुधार कानून के तहत कृषि योग्य रेहन ज़मीन (मॉरगेज़ लैंड) को वापस दिला दिया था महाजनों से असामियों को। इसी के बाद गोला बाबा की आर्थिक स्थिति संकटग्रस्त हो गई थी। बाद में कुछ लोगों ने काफी दबाव के बाद किसी तरह उनका आधा-अधूरा मूलधन ही वापस किया था। उनसे सूद पर पैसा लेने वाले लोग हर जाति और धर्म के थे। कुछ मुस्लिम या तिवारी परिवार के लोग मेले में गाय-बैल के व्यापार के लिए उनसे पैसे लेते थे तो कुछ दलित परिवार भी। लोग बेटियों की शादी में भी पैसा लेते थे। कोई गोला बाबा से अचानक आकर मिलता और कहता कि “पंडी जी, कल बेटी की बारात आ रही है और अभी तक डालडा नहीं खरीदा गया है” गोला बाबा ऐसे समय में बहुत ही उदार हो जाते थे। बाद में इस रोज़गार में ही उनकी पूँजी डूब गयी थी। उनके पास जो पूँजी आ गयी थी, उनके युवाकाल में ही, वह उनके पिता देवदत्त पांडेय की असामयिक मृत्यु से। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि वे हथुवा नरेश के दरबार में मुख्य पुरोहित थे। मरने के बाद 40 या 50 हज़ार चाँदी के सिक्के संदूक में छोड़ गए थे। ये सन् 1940 के आसपास की बात है। मेरे किसान बाबा विश्वनाथ पांडेय बराबर अपने ककऊ के बारे में कहते थे कि “भिरगू बाप के कमाई बरबाद क देलन।“
गोला बाबा पता नहीं किन मूल्यों से बने थे कि कभी खुलकर अपनी ग़लतियों को स्वीकार नहीं करते थे। वे हर समय बाहर से कठोर और गंभीर दिखते थे, घर-परिवार के भीतर। वे धीरे-धीरे अपने जीवन काल में ही अप्रासंगिक होते गए थे। उनकी मृत्यु नवंबर, 1993 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन काशी के मणिकर्णिका घाट पर काली मंदिर में (महेवा मंदिर) हुयी थी। उस वक़्त परिवार के ज़्यादातर लोग उनके साथ थे।
गोला बाबा घर में किसी को तुलसीकृत ‘मानस’ नहीं पढ़ने देना चाहते थे। मैं उनसे छुपकर ‘मानस’ का पाठ करता था। मेरे पड़ोस में सरपंच मोती मल्लाह का घर था। उनके भाँजे लल्लन पढ़ने में तेजस्वी थे। वे मुझसे तीन-चार दर्ज़ा आगे पढ़ते थे। वे रोज़ाना सोने के पहले एक घंटा ‘मानस’ की चौपाइयों और दोहों का सस्वर पाठ करते थे, अपने घर के सामने मुहर्रम में ताज़िया रखे जाने वाले चबूतरे पर। यह चबूतरा साल के शेष दिनों में रात में आसपास के घरों के लोगों के सोने या बैठकी लगाने के काम आता था। जो हो, लल्लन का सस्वर पाठ मुझे बहुत ही सम्मोहित करता था। लल्लन अब लल्लन भारतीय के नाम से मंचीय कविताएँ लिखते हैं और पंचकूला, हरियाणा में सपरिवार रहते हैं। मेरे अंदर साहित्य के बीज जो अंकुरित हुए, उसमें लल्लन भारतीय का भी महत्वपूर्ण योगदान है।
गाँव में मेरे दूसरे पड़ोसी थे सुराज तिवारी। मुझसे उम्र में तेरह साल बड़े थे वे। उनका जन्म 15 अगस्त, 1947 को हुआ था, जिस दिन देश को आज़ादी मिली थी। इसी वजह से उनका नाम सुराज पड़ गया था कि वे सुराज लेकर आए थे। सुराज तिवारी के पिता रामचंद्र तिवारी एक सामान्य किसान थे। उनके बड़े भाई हरिनारायण तिवारी उर्फ़ गुलजार तिवारी गाँव के डाकघर की शाखा में पोस्टमास्टर थे। सुराज तिवारी बहुत कम पढ़े-लिखे थे। मामूली मिडिल पास थे। वे बचपन से ही अपने किसान पिता को खेतीबारी में सहयोग करने लगे थे। गाँव में जाड़े के दिनों में सुराज तिवारी के दुआर का कउड़ा बहुत ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय था। उस कउड़े के चारों तरफ से गोल घेरा बनाकर बीस-पच्चीस आदमी बैठते थे, जिसमें हर आयु वर्ग के लोग शामिल होते थे। हमलोग जब सन् 1973 में अपने बगल के गाँव सिमरी के सिमरी हाई स्कूल, सिमरी में पढ़ने पहुँचे, आठवीं कक्षा में तो सुराज तिवारी 26 वर्षीय युवा थे और उनमें कवित्व का प्रस्फुटन हो चुका था। उनको गाँव-जवार में एक लोककवि के रूप में कुछ-कुछ प्रसिद्धि और पहचान मिलने लगी थी। सन् 1974 में जब बिहार से जे.पी. आंदोलन का आगाज़ हुआ था तो सुराज तिवारी के हिन्दी-भोजपुरी गीतों की एक पतली बुकलेट प्रकाशित हुयी थी, उनकी कोशिशों से। उस दौर में उनका एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था जो विद्यार्थियों को संबोधित था- “एक साल की पढ़ाई में क्या है, जीवन दान देना पड़ेगा।” वे स्वयं गाते भी थे। वे राजनीतिक कविताओं के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य की कविताओं की भी रचना करते थे। वे आपातकाल के विरूद्ध थे। बाद में जब सन् 1980 में जनता पार्टी टूट गयी थी और मध्यावधि चुनाव हुआ था तो लोककवि सुराज तिवारी कॉग्रेस (आई ) के पक्ष में आ गए थे। मुझे याद है कि मैं इंटर का विद्यार्थी था और 4 जुलाई, 1979 को जैन कॉलेज, आरा में छात्रों पर परीक्षा के दौरान हुए बर्बर गोलीकांड के बाद मैंने भोजपुरी में लिखना आरंभ कर दिया था। तब उस बरस मैं कोई उन्नीस साल का किशोर था। सुराज तिवारी के प्रति मेरे मन में लगाव के पीछे भोजपुरी में मेरा लिखना शुरू करना था। सुराज तिवारी को जैसे-जैसे अपने गाँव-जवार में लोककवि के रूप में प्रसिद्धि मिलती गयी वो सत्ता के प्रति आकृष्ट होते गए थे। वे बाद के दिनों में गाँजा भी पीने लगे थे। वे नियमित शाम को गाँजा पीने दक्षिण टोला स्थित महावीर जी की मठिया में भी जाते थे। वहाँ मठिया के पुजारी संत विद्यापति तिवारी भी रामायणी होने के साथ-साथ गाँजा पीने के शौक़ीन थे। वे उम्र में सुराज तिवारी से कुछ बड़े थे। सुराज तिवारी ने आगे चलकर कुर्ता और जूते-चप्पल पहनना भी बंद कर दिया था। वे सिर्फ़ घुटनों तक साधारण मटमैली धोती पहनते थे और कंधे पर सदैव एक सूती गमछा रखते थे। हमारे इलाक़े में सिमरी के गाँधीवादी नेता और सहजानंद सरस्वती के साथ आज़ादी के पहले किसान आंदोलन में भाग लेने वाले सूर्यनारायण शर्मा थे जो सिर्फ़ धोती पहनते थे, घुटनों तक। वे एक या दो बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विधायक भी बने थे। लोगबाग कहते थे कि सुराज तिवारी उनकी नकल करते हैं। यद्यपि मेरा मानना था कि वो अर्थाभाव में ऐसा करते थे। शर्मा जी हमारे गोला बाबा की पीढ़ी के थे। वे एक प्रभावशाली स्थानीय भूमिहार नेता थे।
01 जनवरी, 1980 को जब बक्सर किला के मैदान में इंदिरा गाँधी की विशाल जनसभा हुयी थी तो दिन में घना कोहरा छाया हुआ था। इंदिरा गाँधी सभा स्थल में देर से पहुँची थीं। उनके मंच पर पहुँचने के पहले हज़ारों की भीड़ को सुराज तिवारी ने अपनी भोजपुरी की कविताओं के दम पर रोक रखा था। इस परिघटना के बाद सुराज तिवारी लोककवि के रूप में स्थापित और प्रसिद्ध हो गए थे। उसी साल मैं उनके साथ पटना गया था जब गाँधी मैदान के पास श्री कृष्ण मेमोरियल हॉल में भोजपुरी अकादमी की ओर से एक कवि सम्मेलन हुआ था। वहाँ से लौटकर वे एक महाकाव्य ‘संतोषी महिमावली’ लिखना आरंभ किए थे कि उनको पीलिया की गंभीर बीमारी ने अपनी चपेट में ले लिया था। वे फरवरी, 1981 में पुन: पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पीटल में ले जाए गए, कोमा की हालत में; जहाँ उन्होंने 4 फरवरी को अपने शरीर का त्याग किया था। मैं उनके परिजनों के साथ हॉस्पिटल में ही था। मेरे साथ गाँव में उनकी पट्टीदारी के भुवनेश्वर तिवारी भी थे, जो उन दिनों आर.पी.एफ. में सिपाही थे और पहलवानी का भी शौक रखते थे। सुराज तिवारी की उम्र मरने के पहले तैंतीस-चौंतीस साल की ही थी। उनकी मृत्यु के साल-दो साल पहले मैं उनके काफी निकट था। जब भी गाँव आता तो उनके साथ ज़्यादा समय गुज़ारता था। उनकी मृत्यु से मैं बहुत ही सदमे में था। मैं अपने को अकेला महसूस कर रहा था। एक तरह से कहा जाए तो सुराज तिवारी मेरे पहले कविमित्र थे। मैं जब भी गाँव जाता तो उनके लिए आरा से प्रकाशित होने वाली भोजपुरी पत्र पत्रिकायें- ‘गाँवघर’ (संपादक-भुवनेश्वर श्रीवास्तव ‘भानु’ ), ‘आपन गाँव’ (संपादक-महेन्द्र गोस्वामी) या ‘चटक-मटक’ (संपादक-चितरंजन सिंह) की प्रतियाँ ले जाता था। वे उनमें अपनी और मेरी रचनाओं को प्रकाशित देखकर बहुत प्रफुल्लित होते थे और इसे स्थायी महत्व का काम मानते थे। वे बहुत ही उर्वर दिमाग़ के कवि थे। उनमें अपार संभावनाएँ थीं जो सामने न आ सकीं। नियति के क्रूर हाथों ने असमय ही एक भोजपुरी के संभावनाशील कवि को हम सबसे दूर कर दिया था। … तो इस तरह मेरे कवि-लेखक बनने की प्रक्रिया का आरंभ पहले भोजपुरी में हुआ था।
मेरे तीसरे पड़ोसी थे कमल जी। कमल जी का पूरा नाम था पंडित चंद्रधर पांडेय ‘कमल’। गाँव में लोगबाग उनको कैलाश पंडित या कैलाश बाबा के नाम से जानते थे। वे रिश्ते में मेरे प्रपितामह लगते थे। वे मेरे पट्टीदार (गोतिया) में थे। वे हिन्दी से एम.ए.थे, पटना विश्वविद्यालय से। उनका जन्म संभवत: सन् 1934 के आसपास हुआ होगा। वे स्कूल इंस्पेक्टर थे, बिहार सरकार में। उन्होंने भोजपुरी-हिन्दी में दर्ज़न भर से ज़्यादा गद्य-पद्य की कृतियों की रचना की थी। वे अपनी कृतियों को आलोक प्रेस, बक्सर से अपने पैसे और उद्यम से प्रकाशित कराते रहते थे। यह मेरा सौभाग्य था कि वे मुझे साहित्य का एक सुपात्र मानकर अपनी लगभग अधिकांश प्रकाशित पुस्तकें पढ़ने के लिए देते थे। वे कविता में छंदबद्ध और अतुकांत दोनों ही शैलियों के प्रयोक्ता थे। वे कहानी और उपन्यास, गीत और प्रबंध काव्य समान अधिकार से लिखते थे। वे एक गंभीर स्वभाव के साहित्य-साधक थे। वे जब गाँव आते थे छुट्टियों में तो मैं उनसे बराबर मिलता रहता था। वे अक्सर गाँव में अपने घर के पास जंगली तिवारी के गड्ढे के सामने वाले कुएँ की जगत पर बैठते थे, दोपहर के बाद। गर्मी के दिनों में। मैं भी उनकी बैठकी में शामिल होता रहता था। अब वह कुआँ सार्वजनिक नहीं रह गया है। वे साहित्य को शिक्षित और शिष्ट जनता से जोड़कर देखते थे। वे भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह मानते थे कि ‘साहित्य शिक्षित जनता की संचित चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है।’ वे लोककवियों, लोकनाटककारों या लोककलाकारों की आलोचना करते थे। वे भिखारी ठाकुर की तरह ही सुराज तिवारी की रचनाशीलता को भी महत्व नहीं देते थे। उनको बराबर यह प्रतीत होता था कि स्तरीय साहित्य पढ़े-लिखे लोगों के लिए ही है। सुराज तिवारी की लोकप्रियता को वे सस्ती लोकप्रियता मानते थे। गाँव में कमल जी की रचनाशीलता से बहुत ही कम लोग वाकिफ थे। उनके सुपुत्र स्व. महेन्द्र पांडेय भी कविताएँ लिखने लगे थे। वे आगे चलकर कवि जगदीश नलिन और हरिनंदन कुमार (डुमराँव) के साथ मिलकर ‘संवाद’ नाम की पत्रिका निकाले थे, जो डुमराँव से ही छपती थी। ‘संवाद’ का प्रवेशांक सन् 1984 में छपा था, जिसमें मेरी एक कविता ‘धरती’ प्रकाशित हुयी थी। इसके पहले दिल्ली में प्रसिद्ध कथाकार-चिंतक-आलोचक-अनुवादक डॉ.रमेश उपाध्याय के संपादन में निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘कथन’-20 (अक्टूबर-दिसंबर, 1983) में मेरी पहली और छोटी कविता ‘शब्दों का उच्चारण’ छप चुकी थी। यह पहले दौर के ‘कथन’ का अंतिम अंक था। बाद में सन् 1999 से पुन: ‘कथन’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। यह पत्रिका बंद थी इधर। इसका प्रकाशन तिबारा शुरू हुआ। अब यह स्थगित है। तीसरे दौर में इसका आख़िरी अंक 2021-22 में स्मृति शेष रमेश उपाध्याय पर प्रकाशित हुआ था जिसका संपादन संज्ञा उपाध्याय ने किया था। संज्ञा उपाध्याय साहित्यकार रमेश उपाध्याय की छोटी सुपुत्री हैं।
बहरहाल, कमल जी का मैं स्नेहपात्र था। वे अपनी तरह से मुझे साहित्य-लेखन की टिप्स देते रहते थे। वैसे वे साहित्य में राष्ट्रवादी और परंपरावादी चेतना के पोषक थे। वे भक्तिकालीन काव्य के अलावा द्विवेदीयुगीन साहित्य से गहरे प्रभावित थे। उनका एक भोजपुरी महाकाव्य ‘नारायण’ दो भागों में प्रकाशित है। एक भोजपुरी उपन्यास ‘अर्जुन’ है। मैंने पी-एच.डी. कमल जी के जीवनकाल में कर ली थी। तो इस तरह मेरे गाँव का परिवेश साहित्यिक था। मैं हर तरफ़ से अपने लिए खुराक इकट्ठा करता था। मैं सुराज तिवारी से गहरे प्रभावित था तो इसलिए कि उनकी कविताएँ जनरंजन से भी जुड़ी थीं। कमल जी पौराणिक आख्यानों पर या शहीदों पर काव्य-सर्जना कर रहे थे। उनकी बातें भी मेरे लिए महत्वपूर्ण होती थीं। वैसे साहित्य में वाद या विचारधारा के प्रबल विरोधी भी थे वे। कुल मिलाकर उनका लेखन नीतिपरक और पारंपरिक था। मुझे कमल जी से भी साहित्य में आगे बढ़ने और लिखने की प्रेरणा मिलती थी। मैं उनकी स्मृति को आदर सहित प्रणाम करता हूं।
जो हो, गाँव के अपने ऐसे ही वातावरण से निकलकर मैं सन् 1977 की जुलाई में आरा पहुँचा था। जैन कॉलेज में इंटरमीडिएट, विज्ञान का छात्र बनकर। आरा में मार्च 1981 की किसी शाम में जब हल्की गर्मी की शुरुआत हो रही थी और अचानक मौसम बिगड़ने से बूँदाबाँदी भी, तो मैं पहली बार ‘वाम’ के यशस्वी संपादक और प्रख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर डॉ. चंद्रभूषण तिवारी से मिला था। उनका उन दिनों किराए का मकान शहर के उत्तरी छोर पर बलबतरा में था। वे जैन कॉलेज में मेरे हिन्दी के एक तेजस्वी और प्रखर प्राध्यापक भी थे। कॉलेज में कक्षा में उनका सामना हो चुका था। उनसे मिलने का परामर्श शहर के ही हिन्दी के सुचर्चित जनवादी कहानीकार और उनके शिष्य प्रोफ़ेसर डॉ. नीरज सिंह ने दिया था। वह शाम मेरे जीवन की बहुत महत्वपूर्ण शाम थी। मुझ जैसे नए और नवसिखुआ रचनाकार से भी उन्होंने लंबी बातचीत की थी। उन्होंने ये भी पूछा था कि ‘कहाँ से हो? तुम्हारे पिता क्या करते हैं? या हिन्दी आनर्स क्यों ले रहे हो, स्नातक में?’
जो भी हो, मैं बाद में जब भी ख़ाली होता तो शाम को उनसे मिलने पैदल ही चल देता था। उनका घर मेरे कमरे से कोई दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर था। तब मेरे पास रिक्शा के लिए किराए के पैसे नहीं होते थे। उन्हीं दिनों मेरी मुलाक़ात शहर के सुचर्चित कहानीकार मिथिलेश्वर के घर पर, जो महाराजा हाता, कतिरा में था- युवा कवि बद्रीनारायण से हुयी थी। वे इलाहाबाद में इंटरमीडिएट, कला के विद्यार्थी थे। उनका भी किराए का मकान कतिरा में ही था। ‘कथन’ पत्रिका के बारे में मुझे पहली बार बद्रीनारायण से ही जानकारी मिली थी। तबतक उनकी एकाध छोटी कविताएँ ‘क़लम’ और ‘कथन ‘में छप चुकी थीं।
उन दिनों चंद्रभूषण तिवारी लगातार शहर में और पूरे देश में जगह-जगह ‘जनवाद’ शब्द पर बहस करा रहे थे। प्रेमचंद की जन्मशती मनायी जा रही थी। दो-चार माह के संपर्क और मिलने-जुलने के बाद ही उन्होंने मुझे ‘वाम’ के तीन अंकों में से पहला अंक दिया था, साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी के मेनीफेस्टो की एक प्रति भी जो सोवियत रूस के किसी हिन्दी प्रकाशन ने छापा था। ‘वाम’ के शेष अंकों की प्रतियाँ नहीं बची थीं, उनके पास। तिवारी जी ‘जनवाद’ को पारिभाषित करने में लगे थे। वे कलकत्ता से प्रकाशित ‘कलम’ पत्रिका के लिए जनवाद के मुद्दे पर डॉ.रामविलास शर्मा और चंद्रबली सिंह का लंबा-लंबा साक्षात्कार ले चुके थे। जनवादी लेखक संघ के गठन की प्रक्रिया चल रही थी। 1982 में इस श्रृंखला का अंतिम साक्षात्कार नामवर सिंह का था जो ‘क़लम’ के फरवरी 1982 के अंक में छपा था। ‘जलेस’ के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर, जो 13 और 14 फरवरी को दिल्ली के साउथ इंडिया क्लब में संपन्न हुआ था। उसमें आरा शहर से तिवारी जी के साथ-साथ नीरज सिंह, रामनाथ मिश्र, सलिल सुधाकर शामिल हुए थे और मैं भी शामिल हुआ था। मैं साहित्य में जनवादी आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकारों में चंद्रबली सिंह, चंद्रभूषण तिवारी, सव्यसाची, मार्कण्डेय, भैरव प्रसाद गुप्त, शिवकुमार मिश्र, रमेश कुंतल मेघ, महादेव साहा, अयोध्या सिंह, डॉ. ओमप्रकाश ग्रेवाल, इसराइल, कुँवरपाल सिंह, रमेश उपाध्याय, कांतिमोहन, कर्ण सिंह चौहान, चंचल चौहान और अरुण माहेश्वरी आदि को मुख्य मानता हूँ।
बहरहाल, मैं दिल्ली सम्मेलन से लौटने के बाद मार्च में जलेस का सदस्य बना था, फॉर्म भरकर। तिवारी जी के बलबतरा स्थित मकान पर। यह मेरे आरंभिक साहित्यिक लेखन के दिनों में एक बड़ा बदलाव था। सलिल सुधाकर दिल्ली से वापस आने के बाद जलेस का सदस्य नहीं बने थे। सन् 1980 से 81 या 82 के दौरान आरा शहर कई तरह की साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियताओं एवं हलचलों से भरा हुआ था। सन् 1981 में आरा नागरी प्रचारिणी सभा के सभागार में चंद्रभूषण तिवारी ने ‘प्रेमचंद जन्मशती’ का आयोजन किया था। उसमें जनकवि बाबा नागार्जुन, कहानीकार भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, शेखर जोशी और डॉ. मुहम्मद हसन भी आए थे। मैं ही आरा स्टेशन पर डॉ. मुहम्मद हसन को रिसीव करने गया था। उनके बारे में तिवारी जी द्वारा बताए गए हुलिए के आधार पर मैंने अनुमान से उनको पहचान लिया था। तिवारी जी ने ये ज़िम्मेदारी मुझे ही सौंपी थी। बाबा नागार्जुन की देख-रेख का जिम्मा भी मुझे ही मिला था। बाबा की उम्र उन दिनों सत्तर के आसपास रही होगी।
मुझे अच्छी तरह से याद है कि टाउन स्कूल, आरा के पास एक होटल के कमरे में जहाँ बाबा नागार्जुन ठहरे थे, जब मेरा उनसे पहली बार संपर्क हुआ था तो उन्होंने मेरे लेखन के बारे में पूछा था। मैंने अपनी कुछ रचनाओं (कविताएँ /कहानियाँ) को, जो आरा शहर से प्रकाशित होने वाली भोजपुरी पत्र-पत्रिकाओं (‘गाँवघर’, ‘चटक-मटक’ आदि) में छपी थीं- उन्हें दिखाने लगा था। बाबा ने कहा था कि ‘तुम हिन्दी में भी लिखो’ मैंने सन् 1980 में ही लिखना शुरू कर दिया था; पर अपनी हिन्दी में लिखी कविताओं के प्रति तबतक ख़ुद आश्वस्त नहीं था। उन्हें किसी को दिखाने या सुनाने में कुछ संकोच का अनुभव करता था। अब उनके बारे में सोचता हूँ तो पता चलता है कि वे कोरे शब्दों से काग़ज़ पर उकेरी गयी थीं। उनमें संवेदना और सूझबूझ की कमी थी। यह एक संयोग ही है कि आगे चलकर मैंने डॉ. तिवारी जी से लेकर नागार्जुन सहित तमाम समकालीन कवियों के कविता संकलन पढ़ डाले। आगे चलकर हिन्दी कवियों में मेरे रोल मॉडल नागार्जुन ही बने।
‘जनवादी लेखक संघ’ के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में शिरकत कर दिल्ली से वापस आरा आने के बाद मैं कई लघु पत्रिकाओं का नियमित पाठक बन गया था। ‘कथन’, ‘उत्तरगाथा’, ‘उत्तरार्ध’, ‘बहस’, ‘नया पथ’, ‘कंक’, ‘आवेग’, ‘पहल’, ‘कलम’, ‘अभिव्यक्ति’ आदि को अपने गाँव के पते से मँगाता था। उस दौर में मैंने सव्यसाची की सभी पुस्तिकाएँ भी डाक से मँगाकर पढ़ी थी। उनदिनों मैं देश के तमाम बड़े-छोटे लेखकों को पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र लिखता था। उनमें से लगभग सबके ज़वाब भी आते थे। तब मोबाइल और नेट का समय नहीं था। सोशल मीडिया का अता-पता नहीं था। पत्राचार ही संवाद के लिए बेहतर माध्यम हुआ करता था। साहित्य के जनवादी आंदोलन में अपने लेखन या कविकर्म के बिल्कुल आरंभिक दौर में ही शामिल होना मेरे लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ था। मुझे ज़्यादा भटकना नहीं पड़ा था। वैसे मैं जिस तरह के परिवार और गाँव-जवार से निकल कर आरा आया था, उसमें साम्यवाद या जनवाद के लिए कोई विशेष ‘स्पेस’ नहीं था। इस आंदोलन से जुड़ने के बाद लगातार मेरे दिमाग़ का जाला साफ़ होता गया था। मेरे पुराने रूढ़िग्रस्त सवर्ण सामंती संस्कार जीर्ण-शीर्ण पीले पत्तों की तरह झड़ते गए थे। आज अगर कोई मनुवाद, पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद या सवर्णवाद पर सही और तर्कपूर्ण तरीके से चोट करता है तो मैं तनिक भी आहत नहीं होता हूँ। इसके पहले यह विवेक मेरे पास नहीं था। मेरे लेखन और संवाद की भाषा में बहुत बदलाव आया है, सन् 1981-82 से आजतक के दरम्यान। जातिवाद, वर्णवाद, सामंतवाद, पूँजीवाद, साम्राज्यवाद के विरोध में जो मेरे अंदर सोच विकसित हो पायी है ,एक हद तक वह सोच इस जनवादी आंदोलन की देन है। मेरे भीतर हमेशा व्यक्तिवाद या अपने पुराने जातिगत संस्कारों से एक निरंतर जो संघर्ष चलता रहता है, वह भी इसी की देन है। मेरे भीतर कमज़ोर या उपेक्षित के प्रति सहानुभूति या पक्षधरता का भाव और विचार जनवादी-प्रगतिशील आंदोलन के चलते पुष्ट होता गया है। मैं मानता हूँ कि कविता कमज़ोर की ज़ुबान है। देश -दुनिया की तेज़ी से बदलती स्थितियों और नए सामाजिक यथार्थ के प्रति एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को विकसित करने में भी इस आंदोलन ने मेरी मदद की है।
बहरहाल, मैंने सन् 1980 से सन् 1990 के दरम्यान कुल साठ-सत्तर कविताओं की रचना की थी। इनमें कुल बीस-पच्चीस कविताएँ प्रकाशित हो पायी थीं। ये कविताएँ ‘कथन’ (दिल्ली), ‘उत्तरगाथा’ (दिल्ली), ‘उत्तरशती’ (पटना), ‘बहस’ (कुरूक्षेत्र), ‘उद्भावना’ (ग़ाज़ियाबाद), ‘संवाद’ (डुमराँव) जैसी लघु साहित्यिक पत्रिकाओं के अतिरिक्त पटना के दैनिक समाचार पत्रों- ‘नव भारत टाइम्स’ और ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’ में प्रकाशित हुयी थीं। जब मैं एक लंबे अरसे बाद सन् 2010 में अपनी कविताओं का पहला संकलन तैयार कर रहा था तो उसमें सन् 1980 से सन् 1990 के दरम्यान प्रकाशित-अप्रकाशित कविताओं में से तीन कविताएँ ही चुन पाया था। बाक़ी कविताएँ मुझे ख़ुद ही कमज़ोर लगी थीं। वे तीन कविताएँ हैं- ‘हँस देते उसके बाबू’ ,’मख़्दूम भाई’ और ‘यह कोई ज़ुर्म तो नहीं था’। इन तीनों कविताओं का रचना काल है साल 1984। ‘हँस देते उसके बाबू’ को मनमोहन ने ‘बहस ‘में छापा था। ‘मख़्दूम भाई” को नंदकिशोर नवल ने ‘उत्तरशती” में स्थान दिया था और ‘यह कोई जु़र्म तो नहीं था’ को ‘चिड़िया’ शीर्षक से ‘नया पथ’ में कविता खंड के संपादक चंद्रभूषण तिवारी ने प्रकाशित किया था। इस तरह हिन्दी में मेरी कविता-यात्रा के वास्तविक प्रस्थान-बिन्दु का समय है वर्ष सन् 1984।
सन् 1991 से सन् 2000 के भीतर मेरी दो दर्ज़न से ज़्यादा कविताएँ ‘उद्भावना’, ‘कथन’, ‘दस्तक’, ‘कथ्यरूप’, ‘समकालीन जनमत’ ,’जनपथ’, ‘संवाद’, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, पटना संस्करण /लखनऊ संस्करण आदि में प्रकाशित हुयी थीं। इनमें ‘कोई नहीं है गोलकीपर भी’ , ‘चीज़ें बदल रही हैं’, ‘घर’, ‘हत्यारे’, ‘किसने’, ‘क़ातिल संस्कृति’, ‘जहाँ पहुँचना है हमें’, ‘वे’, ‘यक़ीन के साथ’, ‘कितना यक़ीन’, ‘मुझे नइहर ले चलो’, ‘काश! वह बेटा होती’ आदि मुख्य हैं। ‘काश! वह बेटा होती’ पहले ‘उस औरत की फाइल में’ शीर्षक से लिखी गयी थी। ‘किसने’ का शीर्षक ‘अब नए संस्करण में होगा- ‘किसने बुनी कमज़ोर चादर।’ इसी तरह ‘वे’ का शीर्षक होगा- ‘वे ही बतायेंगे’। इसमें दो लंबी कविताओं ‘डॉ. चंद्रभूषण तिवारी की स्मृति’ और ‘यह कुआँ पुराना है सिपाही गदर जितना” के भी शीर्षक नए और बदले हुए हैं। एक कविता ‘नाच के आख़िरी दौर में’ का शीर्षक भी अब ‘उदास करने वाली धुन’ हो गया है। ‘अब भी’ की कविताओं में पहले संस्करण में जो अनुक्रम या तरतीब था वह भी बदल गया है। पहले संस्करण का अनुक्रम प्रख्यात हिन्दी कवि राजेश जोशी की मदद से तैयार किया गया था। इसबार मैंने ख़ुद तरतीब दी है नए संस्करण में। इस नए संस्करण में 61 के स्थान पर 57 कविताएँ शामिल की जा रही हैं। इस संग्रह की ज़्यादातर कविताएँ सन् 2001 से 2009 के दरम्यान लिखी गयीं हैं। बलरामपुर में रहकर। मेरे अनुसार इन कविताओं में प्रमुख कविताएँ हैं- ‘कुश्ती-दंगल’, ‘किधर है साहित्यिक बुक डिपो’, ‘एक अदृश्य प्रेमी पीछा करता है स्त्री का’, ‘आततायी’, ‘छब्बन भाई का भोज’, ‘छब्बन भाई की देश सेवा’, ‘उम्मीद’, ‘उनकी कविताएँ’, ‘हाशिए पर कविता’, ‘यह कैसा समय’, ‘हँसना बीच-बीच में’, ‘मगर आसान नहीं’, ‘अब भी’, ‘ बदलाव’, ‘ऐसे में कउड़ा’ और ‘देश का भावी कर्णधार’ आदि। ‘देश का भावी कर्णधार’ का पहले संस्करण में शीर्षक था- ‘सुंदरकांड का पाठ करते हुए’। उपरोक्त कविताएँ भी हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में छप चुकी हैं।
इस तरह मेरे पहले कविता संग्रह ‘अब भी’ में सन् 1984 से सन् 2009 के दरम्यान की चुनी हुयी और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएँ शामिल की गयी हैं। यानी पिछले कुल जमा छब्बीस-सत्ताईस सालों के दरम्यान लिखी गयीं कविताएँ इसमें शामिल हैं। यह संग्रह जब उद्भावना प्रकाशन से छपने के लिए अजेय कुमार के पास जाने वाला था तो पहले मैंने अपने अग्रज कवि राजेश जोशी के पास इसे दुरुस्त करने के लिए भेजा था। उन्होंने इसका ब्लर्व भी लिखा था। अब नए संस्करण में राजेश जोशी की टिप्पणी को ब्लर्व के रूप में शामिल नहीं किया जा रहा है। इसका पहला संस्करण अगस्त सन् 2010 में छपा था। कोई आठ साल बाद सन् 2019 में इसका दूसरा संस्करण रश्मि प्रकाशन लखनऊ से आया था। कोरोना काल के पहले।
दरअसल, वर्ष 2017 के नवंबर के तीसरे सप्ताह में मेरा दूसरा काव्य संग्रह ‘सामने से मेरे’ रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से ही प्रकाशित होकर आया था। इसमें मेरी कुल 78 कविताएँ संकलित थीं जो सन् 2010 से सन् 2017 के दरम्यान लिखी गयी हैं। उपरोक्त कविताएँ भी हिन्दी की कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुयी हैं। यह संग्रह जिस तरह पाठकों और नयी युवा पीढ़ी के कवियों एवं लेखकों के बीच पढ़ा और सराहा गया है और जिस तरह सोशल मीडिया में इसपर कई सकारात्मक टिप्पणियाँ आई हैं, उसी के बाद से मेरे पहले कविता संग्रह ‘अब भी’ के प्रति भी पाठकों और युवा रचनाकारों की दिलचस्पी और जिज्ञासा बढ़ी है। अब तो मेरे तीनों कविता संग्रहों- ‘अब भी’, ‘सामने से मेरे’ और ‘डुमरांव नज़र आएगा’ के नए संस्करण प्रकाशित करने की तैयारी चल रही है।
बिहार के बक्सर ज़िले के आशा पड़री गांव के एक सामान्य किसान परिवार में जन्मे चंद्रेश्वर एम.एल.के.पी.जी. कॉलेज, बलरामपुर में हिन्दी विषय में 26 वर्षों के शिक्षण कार्य के उपरांत वर्ष 2022 में विभागाध्यक्ष एवं प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति प्राप्त कर वर्तमान में लखनऊ में रहते हुए स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं। ‘हंस’, ‘पाखी’, ‘वागर्थ’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘परिकथा’, ‘लमही’, ‘आलोचना’, ‘नयापथ’, ‘मंतव्य’, ‘कल के लिए’, ‘समकालीन जनमत’, ‘व्यंजना’, ‘कृतिओर’, ‘उद्भावना’, ‘कथाक्रम’, ‘जनपथ’, ‘कृति बहुमत’ सहित हिन्दी-भोजपुरी की लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं और आलोचनात्मक आलेखों का लगातार प्रकाशन हुआ है; साथ ही ‘समालोचन’, ‘पहली बार’, ‘सबद’, ‘अनुनाद’, ‘अपनी माटी’, ‘जानकी पुल’, ‘हिन्दी समय’ व ‘अंजोरिया’ आदि चर्चित वेब-पत्रिकाओं पर भी कुछ हिन्दी-भोजपुरी कविताएं प्रकाशित हुई हैं। ‘हिन्दवी’ की लोकप्रिय वेबसाइट पर चयनित 62 प्रतिनिधि कविताओं का भी प्रकाशन हुआ है। उनकी अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें तीन कविता संग्रह- ‘अब भी’ (2010), ‘सामने से मेरे’ (2017), ‘डुमराँव नज़र आयेगा’ (2021), एक शोधालोचना की पुस्तक ‘भारत में जन नाट्य आंदोलन’ (1994) एवं एक साक्षात्कार की पुस्तिका ‘इप्टा-आंदोल नः कुछ साक्षात्कार’ (1998) सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त भोजपुरी कथेतर गद्य की दो पुस्तकें- ‘हमार गाँव’ (2020), ‘आपन आरा’ (2023) एवं ‘मेरा बलरामपुर’ (हिन्दी में कथेतर गद्य, 2021-22) का भी प्रकाशन हो चुका है। वे एक पाक्षिक समाचार पत्र ‘भोजपत्र’ (आरा) के फीचर संपादक भी रह चुके हैं। भोजपुरी में कथेतर गद्य कृति ‘हमार गांव’ पर सर्वभाषा सम्मान-2024 भी उनको मिल चुका है। संपर्क : ‘सुयश’, 631/58, ज्ञान विहार कालोनी, कमता (फ़ैज़ाबाद रोड)-226028, लखनऊ, उत्तर प्रदेश ।
पठनीय संस्मरण। चंद्रेश्वर जी के साथ एक दौर को भी जानने समझने का मौका मिलता है।