भारतीय साहित्य और विश्व-साहित्य में मृत्यु को लेकर बहुत-सी कहानियाँ लिखी गई हैं। ‘मृत्यु’ एक विषय के रूप में सदैव मनुष्य की जिज्ञासा और आकर्षण का केंद्र रही है। प्रफुल्ल कोलख्यान की यह कहानी मृत्यु को एक अलहदा तरीके से देखती है। आधुनिक जीवन की विडंबनाओं के बीच वे जिस फैन्टेसी को कथा में बुनने में समर्थ रहे हैं, वह कहानी को रोचक और पठनीय बनाती है। 

घूमते-घूमते वह शहर के अंतिम छोर पर पहुंच गया था। अब आगे कुछ नहीं हो सकता है। ऐसा सोचकर वह वापस होने का मन बनाने लगा। तभी दाईं तरफ नजर अचानक चली गई। सामने पंद्रह-बीस मीटर की दूरी पर जहां सड़क घूम रही थी। गेटनुमा कुछ दिखा। शायद कुछ देखने लायक हो, क्या पता! क्या हो सकता है। आगे सड़क मुड़ गई थी। आगे कुछ भी नहीं दिखता था। उस के थके पांव कब अपना काम करते हुए वहां पहुंचा दिया, पता ही नहीं चला।

उस उदास तोरण द्वार पर बुझे-बुझे से अक्षरों में लिखा था कब्रिस्तान। कब्रिस्तान का द्वार बंद नहीं था, खुला भी नहीं था। खोलने की कोशिश करने के पहले ही एक आदमी सामने आता है और बंद द्वार को भीतर से खोल देता है। आरडी पूछता है, यहां क्या है! वह आदमी अपनी गरदन सीधी करते हुए कहता है — पता नहीं!

— मेरा मतलब है, यहां लोग क्या देखने आते हैं?

— मुझे पता नहीं। अकसर यहां लोगों को लाया जाता है। कुछ लोग खुद से भी चलकर आते हैं।

— क्या मैं अकेले अंदर जा सकता हूं।   

— हां।

 

उस ने एक रजिस्टर की तरफ इशारा किया। उस रजिस्टर में कुछ कॉलम बने हुए थे। सब में उस ने आरडी, आरडी लिख दिया। रजिस्टर बिल्कुल खस्ता हाल था। उस की नजर कॉलम के ऊपर गई तो उस की समझ में आया कि मरनेवाले के कॉलम में उस ने आरडी लिख दिया है। पहले तो वह थोड़ा सकपकाया। रजिस्टर चेक करने पर तुरत पकड़ा जा सकता है। लेकिन उस ने लिखे के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं किया। कब्रिस्तान का आदमी इस सब से लापरवाह था। वह भीतर चला गया।

भीतर कई आकार-प्रकार की कब्रें थी। सब पर कुछ-न-कुछ लिखा था। सब से ऊपर अलग-अलग नंबर लिखा था। ऊपर एक नंबर और नीचे ‘दार्शनिक’ पंक्ति। एक पर लिखा था नंबर 27 और पंक्ति थी, ‘कुछ नहीं कहना है’। ‘कुछ नहीं कहना है’ ने उसके में पर गहरा असर डाला। अचरज है कि दार्शनिक पंक्तियों का उस पर कोई खास असर नहीं हुआ है लेकिन ‘कुछ नहीं कहना है’ उसे मथ रहा है। वह अब आगे बढ़ने की हिम्मत खो चुका था। हिम्मत खो चुकने के बाद ताकत कुछ खास कर नहीं पाती है। वह वहां से निकल जाना चाहता था। वह वापस लौटने लगा। लेकिन दिल-दिमाग ‘कुछ नहीं कहना है’ की पकड़ से निकल नहीं पा रहा था। लौटते हुए उस ने कब्रिस्तान के आदमी से आखिर पूछ ही लिया।

— कब्र पर लिखे नंबर और इबारत के क्या मतलब हैं?

— मतलब मुझे नहीं मालूम। जानना चाहते हो तो सामने वाले घर में चले जाओ। ‘नो लाइफ हाउस’। वहां सब पता चल सकता है। अकसर लोग वहां जाकर ‘बहुत कुछ’ पता कर लेते हैं। तुम जा सकते हो। बल्कि जब मन में कोई बात फंस गई है। तो वहां जरूर जाना चाहिए। बल्कि जाओ, जरूर जाओ।

कब्रिस्तान में घुसते समय कब्रिस्तान का आदमी जितना लापरवाह और बेजुबान लग रहा था उतना बेजुबान वह नहीं था। पहले बेजुबान लगनेवाला आदमी जब जुबान खोलने लगता है, तो अच्छे-अच्छे उस की बात की अनसुनी नहीं कर पाते हैं। शाम पांच से कुछ अधिक का समय। कब्रिस्तान के आदमी का कहना कि ‘जरूर जाओ’ अब ‘कुछ नहीं कहना है’ के असर को अधिक जगा दिया था। वह सामनेवाले घर की तरफ बढ़ गया।

घर क्या था! समझा जाये तो बस वाचनालय था। हॉल में बैठने की सुविधा थी और केबिन भी थे। चार-पांच लोग कागज पर झुके हुए थे, एक सेवादार और एक मैनेजर जैसा आदमी भी सामने था। वैसे घर का बास-लिबास उम्मीद से कहीं बेहतर लग रहा था। सेवादार और मैनेजर दोनों कपड़े-लते से चुस्त और आंख-कान के तेज और चौकस लग रहे थे। यहां स्वागत कुछ ठीक था। पधारिए कहने में व्यंग्य तो नहीं था, न मुरदा शब्द की दुर्गंध थी। सेवादार की मुसकान को मूर्ख मुस्कुराहट नहीं कहा जा सकता था।

— पधारिए

— जी, धन्यवाद

— आप की क्या मदद की जा सकती है!

— मुझे यहां जरूर जाने के लिए कहा गया है।

— अच्छा! तो आप वहां से आ रहे हैं। फिर आप इधर मेरे साथ आइए।

दोनों एक केबिन में पहुंच गये थे। केबिन बहुत भव्य तो नहीं था। साफ था। एक कुर्सी। एक पीसी। नोट करने के लिए कागज। एक कलम। मैनेजर ने उसे कुर्सी पर बैठने के कहा।  खुद खड़ा रहा। तभी सेवादार ढक्कन सहित पानी का ग्लास रखकर अदब से निकल गया। उस के जाते ही मैनेजर ने कहना शुरू कर दिया। 

— मुझे यहां बैठने की इजाजत नहीं है। यह पूरी व्यवस्था एक ट्रस्ट के माध्यम से की गई है। ‘नो लाइफ ट्रस्ट’। यहां ऐसे भी कुछ लोग आते हैं, जो सामान्य रूप से स्वस्थ होते हैं। लेकिन मौत की धमक को नजदीक महसूस कर पाते हैं। मरने के पहले अपने बारे में कुछ कहना चाहते हैं। कुछ गोपनीय, कुछ संवेदनशील, कुछ अफसोस जिसे सब के सामने कहना मुश्किल होता है।  मुश्किल इसलिए कि कोई मन से सुननेवाला नहीं होता है। और भी कई कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह भी हो सकता है कि कुछ बातों से एक भिन्न तरह के मुसीबत में डाल सकता है। ऐसे लोगों को एक नंबर दिया जाता है। उन के लिखे को यहां पूरी गोपनीयता के साथ रखा जाता है। इस लिखे को पढ़कर उस व्यक्ति की निजी पहचान के बारे में कोई कुछ नहीं जान सकता है। हम उनकी मौत का इंतजार नहीं करते हैं। उन के नंबर के साथ उसे कंप्यूटर में सुरक्षित रख लेते हैं। हमारे गाइड आते हैं और वे दिन तारीख तय करते हैं कि कब किस तारीख को उस नंबर की कब्र कब्रिस्तान में बना दिया जाये; बिना देह की कब्र।

यह संभव है कि उस की मौत काफी दिन पहले हो चुकी हो या फिर अभी वह अपनी विधिवत मौत के इंतजार में ही हो। असल में इस ट्रस्ट का दर्शन मौत को भिन्न तरह से समझता है। इस दर्शन के मुताबिक आदमी के जन्म की तारीख का तो निश्चित पता हो सकता है लेकिन उस की वास्तविक मौत की तारीख बताना संभव नहीं। इस दर्शन की यह भी मान्यता है कि वास्तव में बहुत सारे लोग जो सामान्य रूप से जीवित माने जाते हैं, वे असल में जीवित होते नहीं हैं और जिन्हें दुनियावी  तौर पर मरा समझा जाता है, उन में से कुछ असल में जीवित ही रहते हैं।

नंबर मिलने के बाद कुछ लोग बहुत कम शब्द में अपनी बात कह जाते हैं। कभी-कभी तो एक दो वाक्य या कुछ शब्द ही लिख पाते हैं। उसी एक-दो शब्द को या फिर उन के लिखे के आधार पर कोई बात उस की कब्र के ऊपर लिखवा दिया जाता है। कुछ लोग कहानी-उपन्यास के बराबर लिख जाते हैं। इस से हमारे काम और हमारी प्रतिबद्धता में कोई अंतर नहीं आता है। लोग बिना नंबर लिये पढ़ सकते हैं। लेकिन ऐसे लोगों को अपना पूरा विवरण एक रजिस्टर में दर्ज करना होता है। अंत में एक और जरूरी बात। यह अनुभूतियों की कब्र है। यह मृत देह की कब्र नहीं है। इसे मान्यता-प्राप्त नहीं है।

इस दुनिया में मान्यता रहस्य है। किसी एक धर्म के माननेवालों के लिए यह नहीं है। इस पर काफी बहस पहले ही हो चुकी है और मान लिया गया है कि धर्म का संबंध देह से ही हो सकता है। आत्मा और अनुभूति से धर्म का कोई संबंध नहीं होता है। इतनी बात पहली बार आनेवालों को अनिवार्य रूप से बताना होता है। हां, हमारी प्राथमिक रुचि नंबर देने में है। वैसे आनेवाले की मर्जी का हम भरपूर सम्मान करते हैं। क्या आप को नंबर दिया जाये? नंबर प्राप्त कर लेने पर पढ़ने का अधिकार अपने-आप मिल जाता है। नंबर मिलने के बाद कोई लिखना शुरू कर सकता है, पढ़ना शुरू कर सकता है। यहां आने-जाने की कोई सीमा नहीं है। ‘नो लाइफ हाउस’ दिन के दस बजे से लेकर रात के नौ बजे तक स्वागत के लिए उपलब्ध रहता है।

इस समय लगभग सात बज रहा था। आज वह कुछ लिखना तो नहीं चाहता था। 27 नंबर को पढ़ना जरूर चाहता था। उसे नंबर दे दिया गया। नंबर की फाइल मिल गई। फाइल पर लिखने और पढ़ने की तरकीब समझ में आने लायक भाषा में बता दी गई थी। आरडी को पहले अपने नंबर की फाइल बनानी थी। फाइल बन गई। अंततः 27 नंबर को खोलते-खोलते आठ के आस-पास बज गया। ऊपर में ही लिखा था ‘कुछ नहीं कहना है’। आगे भी बहुत कुछ लिखा हुआ था। लेकिन इस समय उस की नजर काफी देर तक ‘कुछ नहीं कहना है’ पर अटका रहा। उस का सिर बोझिल हो गया था। थोड़ी थकान भी लग रही थी। नौ बजे के आस-पास ‘नो लाइफ हाउस’ से निकलकर थोड़ी चलते-चलते ही बार पर नजर पर गई। बार पर नजर पड़ते ही गला में खुश्की महसूस हुई।

बार से निकलते-निकलते रात का ग्यारह बज गया था। अब उसे होटल में पहुंचने की जल्दी थी। अपना सामान लेकर चला आया होता तो वापस जाने की क्या जल्दी होती! यहीं कहीं घुस जाता! लेकिन अब तो वहां जाना ही होगा। थोड़ा प्रयास करने पर टैक्सी मिल गई।

रात का बारह नहीं बजा था। वह होटल पहुंच गया था। खाने की कोई इच्छा नहीं थी। हाथ-मुंह धोकर आरडी बिछावन के हवाले हो गया। बिछावन में नींद की पहली झोंक के बाद नींद उचट गई। पिछली जिंदगी पर फिर से दिमाग में कुलबुलाने लगी। विडंबना यह कि अपनी पिछली जिंदगी की जिन यादों को मिटाने के लिए वह घर से इतनी दूर निकल आया था, उन्हीं यादों ने उसे फिर से घेर लिया है।

रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी उन्हें कुछ अधिक ही तीखी लग रही थी। किसी बड़ी नौकरी से रिटायर्ड नहीं हुए थे। किसी बड़ी नौकरी में थे भी नहीं और अभी नौकरी से रिटायर होने की उम्र भी नहीं हुई थी। असल में किसी मकसद के लिए उन्होंने खुद को समर्पित कर दिया था। अपनी मनगढ़ंत मान्यता के अनुसार उसी मकसद की नौकरी में थे। मकसद कुछ ‘बड़ा’ करने की। वह ‘बड़ा’ होना अब मुमकिन नहीं रह गया था। मुनासिब भी नहीं। अपनी मर्म-कथाओं से जूझते हुए उन्होंने उस मकसद से खुद को मुक्त करने में उलझा लिया था। इसे ही वे रिटायरमेंट मान कर चल रहे थे।

आदमी कुछ सोचकर करते-करते बड़ा कर जाता है। बड़ा हो जाता है। कुछ ‘बड़ा’ करने की सोचते हुए वह अपनी ही पैमाइश और नुमाइश में इतना उलझ जाता है कि बस वह ‘बड़ा’ सध नहीं पाता है। वे कुछ कहना चाहते हैं लेकिन खुले दिल-दिमाग से। दिल-दिमाग है कि  खुल ही नहीं पाता है। दिल-दिमाग तो ‘कुछ नहीं कहना है’ से चिपक गया है।

कब नींद लग गई। कब सपने में समा गये। क्या पता! वे नहीं उठे तो होटल में हलचल होने लगी। पुलिस बुला ली गई। तलाशी में उन की जेब से मोटे लाल अक्षर में ताजा लिखा हुआ नंबर 770 पाया गया। इस नंबर का रहस्य वहां किसी को पता नहीं चल रहा था। पहचानपत्र से पता चला उन का नाम रामधन है। वे जिंदगी भर रामधन और आरडी के बीच अपनी पहचान को थिर करने के लिए जूझते रहे। वे ‘कुछ नहीं कहना है’ को पूरा पढ़ना चाहते थे। वे लिखना चाहते थे — ‘कुछ कह नहीं पाया।’ जिंदगी बेजुबान गुजर गई। अधिकतर लोगों की जिंदगी इसी तरह से गुजर जाती है।

असल में वे कुछ ‘बड़ा’ कहना चाहते थे, कभी कह नहीं पाये। जो लोग सुनना चाहते थे, वे कह नहीं पाते थे। जो कहना चाहते थे, कोई सुनना नहीं चाहता था। फाइल 770 में क्या लिखा जायेगा! क्या पता! ‘नो लाइफ हाउस’ और ‘नो लाइफ ट्रस्ट’ का फैसला! क्या पता!

(प्रफुल्ल कोलख्यान वरिष्ठ लेखक हैं और कविता, कहानी और आलोचना विधाओं में समान रूप से सक्रिय हैं। उनसे prafullakolkhyan@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है) 

Back to top button