कविता

चंद्रेश्वर की कविताएँ

बिहार में जन्मे चंद्रेश्वर हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं। लंबे अरसे तक उच्च-शिक्षा के अकादमिक क्षेत्र में कार्यरत रहने के बाद वे इन दिनों अपना पूरा समय लिखने-पढ़ने को दे रहे हैं। उनकी गद्य और कविता की आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी के अलावा वे भोजपुरी में भी लिखते हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ।

उसी तरह सरलता लिए
 
क्या घर वापसी छलावा भर नहीं 
क्या घर वापसी में बची मिलती 
कोई जगह पुराने घर के अंदर
 
क्या वापसी होती या फिर त्रासदी जुड़ती
महाकाव्य के किसी मार्मिक सर्ग की तरह
 
रोने या हँसने के लिए क्या हम 
पहले की तरह जगहें या कंधे ढूँढ़ पाते
 
क्या हम उसी तरह सरलता लिए
उन चीज़ों से बना पाते कोई रिश्ता 
जिस तरह जिस अपनत्व के साथ
रख गए थे हम उन्हें सहेज या सँचकर
 
इंसानी फितरत होती निकलना सफ़र पर 
अपने पांवों के निशान छोड़ते हुए 
 
हर मौसम की मार सहते हुए
 
हम पिछले जीवन की स्मृतियों को सहेजे
बढ़ जाते आगे… बहुत आगे 
 
हम छोड़ देते अपना घर… पुरवा… जवार 
अपने सुखों की तलाश में
कई बार तो प्रदेश और देश भी 
अगर इंसान बने रहना हो मुश्किल तो 
बाजदफ़ा धर्म  एवं मज़हब भी ।
 
मुश्किल राह
 
पार कर रहा बेहद मुश्किल राह
 
धीरज का हो रहा इम्तहान 
 
राह वही जिसपर खड़े 
क़दम -क़दम पर
एक से बढ़कर एक बटमार
 
चोर-उच्चके
आततायी और वधिक
लिए खंजर हाथ
 
जिनकी पाना थाह
नहीं आसान
 
दूर-दूर तक देता नहीं दिखायी
इस राह पर कोई हमदर्द 
 
गर्द ही गर्द मेरे हर तरफ़
 
साथ के कोमल शब्द भी
होकर अदृश्य चिपक गए
वधिकों की ही ज़ुबान से
 
जो कलतक रहे मुरीद
सीधी-सहज वाणी के
वे ही आज सुनने को
विवश अबूझ उलटबांसियाँ
 
जो अभ्यस्त रहे बेबाक़पन के
उनके कान को ही
पका रहीं लंतरानियाँ
राजा जी की ।
समय से 
 
फल का गिरना पककर
पेड़ की शाख से 
पत्तों के बीच से
ज़मीन पर 
सहज-सुंदर दिखता
 
फूल का बिखरना
पौधे से झर कर
शाम में
धूल में मिलना 
उसकी एक-एक 
पुखुरियों का
सहज-सुंदर दिखता
 
अनाज के दानों का
हुनरमंद हाथों का पाकर स्पर्श
सीझकर चूल्हे की आग पर 
बदलना सुस्वादु व्यंजन में
सहज-सुंदर लगता
 
कपास का कपडे़ में
 
लोहे का रेल की पटरियों में
 
सोने का आभूषण में
 
हीरे का हार में
 
लकड़ी का घर के धरन में
सीढ़ी में संदूक में
अल्मारी में किवाड़ में
मेज़-कुर्सी में चिता में लगना
दिखाना तमाशे
तरह-तरह के
 
मिट्टी का चढ़कर
चाक पर कुम्हार के 
दीए में बदलना
श्रमिकों के साँचे में ढलकर
भट्ठे की ईंट बनना
सहज-सुंदर लगता
 
जवानी ही नहीं 
देखना ही हो गर
सच में सुंदरता तो 
तुम देखना बुढ़ापे में मेरे यार
गोरख की वाणी भी 
पुकारती बार-बार —
”जरणा जोगी ………जरणा जोगी”
 
जीवन के हर वय में ही होती समाहित
उसकी सुंदरता
 
मृत्यु भी बनती श्रृंगार
रहस्यमयी सृष्टि का
देती जब दस्तक दरवाज़े पर
समय से ।

संपर्क : 7355644658 / 9236183787 ; ई-मेल- cpandey227@gmail.com

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