कविता
प्रतिष्ठित कवि, बाल-साहित्यकार, अनुवादक और चिंतक डॉ. दिविक रमेश दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। वे आई.सी.सी.आर. (भारत सरकार) की ओर से दक्षिण कोरिया के हांगुक विश्वविद्यालय में भी अतिथि आचार्य के पद पर 1994 से 1997 तक काम कर चुके हैं। आपकी विविध विधाओं में लगभग पचासी पुस्तकें प्रकाशित हैं और देश-विदेश के विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों में रचनाएँ सम्मिलित हैं। सोवियत लेंड नेहरू पुरस्कार,1984 ( कविता संग्रह : रास्ते के बीच, खुली आँखों में आकाश), गिरिजा कुमार स्मृति राष्ट्रीय पुरस्कार, 1994 (काव्य-नाटक खण्ड-खण्ड अग्नि), हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्यकार सम्मान, साहित्य अकादेमी का बाल-साहित्य पुरस्कार (1918), कोरियाई दूतावास का प्रशंसा-पत्र, एन.सी.ई.आर.टी का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, उ. प्र. हिंदी संस्थान का बाल भारती पुरस्कार, पंडित जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी, राजस्थान का बाल साहित्य मनीषी सम्मान आदि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मानों से सम्मानित हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएं, जिनके केंद्र में प्रकृति और विशेषतः वृक्ष हैं :
लो आजाद कर दिया
पास से गुजरा तो खिलखिलाया था वृक्ष
देखा
लड़ी सजा ली थी हँसी की
मैं भी हँसा
तो हो लिया साथ, बनकर छवि
लौट आया घर
आई छवि भी साथ
बोली
क्या लाए हो
बस कैद में रखने को अपनी?
मैं मुस्कुराया
कहा
लो आजाद किया
और मैंने आजाद कर दिया
कहाँ-कहाँ गई होगी छवि
नहीं जानता
पर गई होगी जहाँ-जहाँ भी
दिखा रही होगी राह
अपने वृक्ष तक पहुँचने की
जाओ राहगीर
जाओ
बाट जोह रहा है वृक्ष
आँखें बिछाए
जाओ
और वृक्ष की हँसी में
अपनी हँसी मिलाओ
भूख के लिए सेब
(एक फिलस्तीनी कविता को याद करते हुए)
कैसे थे आप भी कवि त्रिलोचन!
क्या ही तो कहूँ!
कभी परवाह नहीं की खुद की
की तो की उन आम जनों की
लिखी कविताएँ बस उनके लिए
परवाह नहीं की
किसी खासमखास की भी
होते ही ऐसे हैं कुछ खास प्रख्यात
हों चाहे साहित्य के ही
नाम तक लेना समझते हैं तौहीन
आप जैसों का
अगर दायरे से बाहर हैं आप
हलक में ही कर दे कोई डण्डा उनके
तो बात अलग है
याद आई कविता वह
बताया था जिसने
कि वृक्ष ने तो गिराया था सेब
मनुष्यों के लिए ही
कि उठाएँ और खाएँ
बुझाएँ भूख पेट की,
पर बाजी मार ली न्यूटन ने
निकाल लिया सिद्धांत खास
पेड़ से
गिरने का सेब
और हो गया प्रसिद्ध
जीत लिया जग
रह गया पेड़
वैसा का वैसा
खड़ा
गिराता
सेब
मनुष्यों के लिए
समर्पित उनकी भूख को
कौन जानता है उसको
जानते हैं तो न्यूटन के सेब को
हाँ मैं कंधा हूँ
हाँ मैं कंधा हूँ
मुझ पर चढ़कर
यदि चाहते हो ऊँचाई पाना
तो पाओ
मुझ से लगकर
यदि चाहते हो
अपने दुख से राहत पाना
तो पाओ
मेरे बहाने
अगर चाहते हो
अपना काम निकालना
तो निकालो
पर दुख होता है मुझे
जब उपयोग के बाद मेरा
मुझे कंधा मानने से ही
कर देते हो इंकार
हाँ मैं हूँ कंधा
रहूँगा भी
कंधा ही
बावजूद
किसी के भी इंकार के
मैं नहीं कर सकता हत्या
कंधे की
न ही करने दे सकता
आत्महत्या
कंधे को
महज इंकार के सामने
बहुत हौले से
इसी वृक्ष को देखिए
पत्तों में संजोए
सजाए मौसम की
पहली आहट के फूलों में
दबाए फलों की संभावनाएँ
कैसे तो इतरा रहा है
छूने देता है फूलों को
मगर हौले से
याद कराता है वृक्ष
सावधानी से कविता शमशेर की
शमशेर की कविता को भी
छूना होता है हौले से
नहीं चाहती वह
छेड़-छाड़ बाहरी,
जरा सी भी नहीं
जाना
जरूर जाना वृक्ष के पास
पर छूना फूलों को
बहुत हौले से
आनंद लेना तब
देख
हरा-हरा शर्माना पत्तों का
भर लाना इंतजार आँखों में
रसीला,
जामुनी
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