कविता
देवेश पथ सारिया हिन्दी के सुपरिचित युवा कवि हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों में कविता संकलन : नूह की नाव (2022), कहानी संग्रह : स्टिंकी टोफू (2025), कथेतर गद्य : छोटी आँखों की पुतलियों में (2022), अनुवाद : हक़ीक़त के बीच दरार (2021); यातना शिविर में साथिनें (2023) शामिल हैं। उन्हें समकालीन हिन्दी कविता का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023) प्राप्त हो चुका है। उनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेज़ी, स्पेनिश, मंदारिन, रूसी, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और राजस्थानी भाषा-बोलियों में हो चुका है। इन अनुवादों का प्रकाशन एन ला मास्मेदुला, लिबर्टी टाइम्स, लिटरेरी ताइवान, ली पोएट्री, यूनाइटेड डेली न्यूज़, स्पिल वर्ड्स, बैटर दैन स्टारबक्स, गुलमोहर क्वार्टरली, बाँग्ला कोबिता, इराबोती, कथेसर, सेतु अंग्रेज़ी, प्रतिमान पंजाबी और भरत वाक्य मराठी पत्र-पत्रिकाओं में हुआ है। A Toast to Winter Solstice (अंग्रेज़ी अनुवाद : शिवम तोमर, 2023) शीर्षक से एक अंग्रेज़ी कविता संकलन भी प्रकाशित है। वे संप्रति गोल चक्कर वेब पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनकी नई कविताएं :
साहिबान-क़दरदान
फ्राँस का पाँच सितारा होटल
ऐतिहासिक डिनर हॉल की छत पर
काँच का ऐतिहासिक काम
सब कुछ आलीशान इतना कि
लोग बाथरूम तक फ़ारिग़ होने नहीं
कलाकारी देखने जा रहे हैं
होटल के ख़ाली कंसर्ट हॉल में
दो वायलिन वादक
डूबकर बजा रहे हैं
संगीत सुना रहे हैं
चहारदीवारों को
अपने ही चार कानों को
होटल के बाहर चौराहे पर
एक आदमी गिटार बजा रहा है
एक युगल, दो लड़कियाँ, एक बच्चा
और एक बूढ़ा अल्सेशियन कुत्ता
ठहरे हुए उसे सुन रहे हैं।
ताइवान में वसंत
(1)
पहला दिन
ख़रगोश के चीनी साल का
ख़रगोश-सा मुलायम बच्चा
ख़रगोश-से सफ़ेद फूल।
(2)
यहाँ फ़ौज का अफ़सर क्या कर रहा है?
मैं चौंकता हूँ
वह जो फूलों के पास खड़ा है वर्दी में
अपने बचपन और गाँव के बारे में बता रहा है
ज़ूनान के लोगों को ‘हैप्पी न्यू ईयर’ कह रहा है।
कोई जगह हो
वह उम्र भर नास्तिक रहा है
और साठ बरस रहा है
एक स्त्री का प्रेमी
दो महीने पहले गुज़र गई वह
वह नास्तिक है अब भी
फिर भी जाने क्यों
उसका मन चाहता है
कि कोई जगह हो
जहाँ वह उससे फिर मिल सके
उसे कुछ भी कहते हों—
स्वर्ग, नर्क, पुनर्जन्म।
अतृप्त
आग में कैसे तो चटख कर जलते हैं
मिट्टी, नमक में पड़े गलते हैं
साल में कभी-कभार
ताबूत में पड़े मचलते हैं—
अचर्चित कलाकार,
अचुंबित होंठ।
टॉफी
कोई लाख डराए—
दाँतों में कीड़े लग जाएंगे
बच्चे टॉफी खाना नहीं छोड़ते
फिर भी एक दिन
वे छोड़ चुके होते हैं टॉफी खाना
उन्हें याद नहीं रहता किस दिन
और याद नहीं आता, क्यों।
गुलबहार
(1)
मात्र एक तर्जनी तुम्हारी का हिलना
दर्शाता था कि वह दृश्य स्थिर नहीं था
तीन बार की थाप के बाद फैले होंठ
बिना चहके खुली एक चिड़िया की चोंच
झुककर उठी आँखें
हुज़ूर में बजने लगते साज़
हिलती रहती तर्जनी
एक बार बल खाई ग्रीवा
वहीं थिर रही टकटकी।
(2)
नर्मदा एक सुंदर नदी है
तुम एक ‘एंग्री बर्ड’ हो
तुम दोस्तों के साथ पार्टी करने जाती हो
तो कभी हॅंसने, कभी रोने लगती हो
जबकि सिर्फ़ तुम्हीं ने नहीं पी होती
वे तुम्हारी कविताएं नहीं सुनते न?
“वे किसी के पप्पा की नहीं सुनते”
मुझे लगा था कि तुम
नशे में धुत्त दोस्तों को मुकरियाॅं सुनाओगी।
(3)
मैं बनाता हूॅं गंभीर चेहरा
तुम बत्तीसी दिखाकर हॅंसती हो
मैं फूलों को रहने देता हूॅं पौधों पर ही
तुम कोई एक फूल बड़ी नज़ाकत से चुनती हो
मेरे कानों पर टिकता है चश्मा
तुम्हारे कानों पर फूल
और मुझे याद आता है
पुरानी सरकारी बस का कंडक्टर
और कान पर टिका उसका पेन
कितनी बेफ़िक्र हो तुम
असली या नक़ली स्वर्ण तो छोड़ो
नाक में कोई बाली नहीं
कान में एक पौधे का अंश
आज कोई फूल नहीं तुम्हारे पास
और तुम ही फूल-सी खिलती हो।
संपर्क : 9784972672, deveshpath@gmail.com
बेहतरीन कविताएं
देवेश सारिया सकल दृश्य में से चुटकी भर जीवन लेकर एक भरा पूरा वितान रच देते हैं. रंग की बात करते हैं तो उसमें खुशबू भी नुमायां रहती है और रोशनी को शब्द देते समय वे पक्का जतन करके चलते हैं कि आवाज़ भी डूबने से बची रहे.
ताईवान में बसंत के खरगोश जैसे सफेद फूल हों या किसी साठ साला का मन जो कोई जगह चाहता हो या फिर अतृप्त अचुंबित होंठ और टॉफी क्यों छोड़ दी थी — याद ही न आना !