कविता

पंखुरी सिन्हा की कविताएँ

पंखुरी सिन्हा हिन्दी और अंग्रेजी की सुपरिचित लेखिका हैं। उनके तीन हिंदी कथा-संग्रह, 8 हिंदी कविता-संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह प्रकाशित हैं और कई किताबें प्रकाशनाधीन हैं। कई संग्रहों में भी उनकी रचनाएं संकलित हैं। वे कई पुरस्कारों से सम्मानित हैं, जिनमें प्रमुख हैं- सी वी रमन विज्ञान-कथा प्रतियोगिता 2022 में पहला पुरस्कार, कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का 2016 का पहला पुरस्कार,  कुमुद टिक्कू कथा पुरस्कार 2020, मथुरा कुमार गुंजन स्मृति पुरस्कार 2019, प्रतिलिपि कविता सम्मान 2018, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, ‘कोई भी दिन’ को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, ‘एक नया मौन, एक नया उद्घोष’, कविता पर 1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में CBSE बोर्ड कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान। उन्होंने ‘कोबरा: गॉड ऐट मर्सी’, डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन भी किया है, जिसे  1998-99 के यू जी सी फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला। हाल में, अंग्रेजी लेखन के लिए रूस, रोमानिया, इटली, अल्बेनिया और नाइजीरिया देशों  द्वारा सम्मानित हुई हैं, जिसमें चेखोव महोत्सव, याल्टा, क्रीमिया में कविता-कहानी दोनो को मिले पुरस्कार और 2021 में इटली में प्रेमियो बेसियो स्पैशल जूरी अवार्ड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 2021 में ही इटली की ‘गैलेतियो कविता प्रतियोगिता’ में चौथे कविता संग्रह ‘ओसिल सुबहें’ की एक कविता द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित हुई है। आप 2023 में इटली द्वारा ‘मेलेतो दी गुईज़ानो’ सम्मान से सम्मानित हुई हैं। आपकी कविताओं का देश और दुनिया की सत्ताइस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। आप हंगरी और बुल्गारिया में राइटर इन रेजीडेंस रह चुकी हैं और स्वीडन के ट्रानस साहित्य महोत्सव २०२२ में कविता पाठ और साक्षात्कार के साथ शामिल हो चुकी हैं। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएँ : 

यह जो समय    

एक चीज़ जो एक समय अच्छी लगती है,

बाद में थोपी जाए, तो बोझ लगती है! 

प्रिय चीज़ें भी हो जाती हैं,

अप्रिय इस तरह!

 

जबकि यह समय, समय को ही पारिभाषित करने का है! 

खुद को समय के विपरीत गढ़ने का!

कवि कह रहे हैं यह पत्थर समय है 

यह बंजर समय है,

यह मारनेकाटनेजलाने, भस्म कर देने का 

और इसलिए यह बचने का समय है 

रेत समय में बालू में तब्दील होने से बचने का!

यह खुद को बचाने का समय है,

सबसे पहले!

 

नाहक खर्च न होने देने का!

न होने देने का ज़ाया 

खुद को न बचाया तो कुछ न बचा सकेंगे!

न रेत, न पानी, न पहाड़ 

न बालू, न पेड़, न लोग, न जीव 

न हवा, न रंग!

फिर कैसे लिखे जायेगें अक्षर भी,

और कौन पिरोयेगा उनमें संवेदना? 

 

लेकिन यह कैसा समय है,

खुद को इस तरह बचाने का आग्रह करता हुआ!

जान बचाने के लिए बोलने को बाध्य करता हुआ!

बोलने को बाध्य करता हुआ

अपने परिवार की सुरक्षा और वंश वृद्धि के लिए!

आवाज़ उठाने की ताकीद करता,

अपने घर की सलामती के लिए!

यह कैसा पत्थरलोहाकाठ समय है 

या कहें अपनी ही आग में प्रज्जवलित,

जो फिनिक्स पक्षीसा,

खुद को पुनर्जीवन भी नहीं दे पाता,

यह लगातार बचाव-बचाव की गुहार लगाता 

 

कैसा समय है यह,

जिसमें ही हम रहते हैं,

और जिसे पहचान नहीं पाते!

समझ नहीं पाते! 

यह कैसी विडम्बना है कि 

हमारा अपना ही समय

यों छ्लता जाए हमें!

राजद्रोह    

यह देश महान है 

परम्पराएं गरिमावान हैं 

इस देश को पूजो 

अपने में गूँथो

 

कुछ नहीं विराट 

इस संस्कृति से! 

 

अहम् ब्रह्मास्मि 

का अर्थ 

मनुष्यता नहीं 

न मानवता 

पाशविक लड़ाई है 

ईश्वर ही पे! 

 

वह जो परमब्रह्म है 

कौन है, कहाँ है?

किसका और कितना है?

किसने बताया है? 

 

किसी ने देखा है क्या? 

पर देखा तो न भविष्य ही 

न अतीत! दोनों इतने 

संपृक्त हैं, कि हमें 

संवाद तक की ज़रूरत नहीं! 

 

कहते रहें अरस्तू

और दिया गया होगा 

ज़हर सुकरात को 

किन्तु, हम तो पहले ही 

आविष्कार कर चुके थे 

शून्य का! और कौन नहीं 

जानता कि शून्य से अधिक 

पूर्णता कहीं नहीं! 

 

इसलिए पूर्ण हैं हम

और सम्पूर्ण हैं हम

प्राप्त है प्राप्य

और अर्जित है ज्ञान!

 

चार्वाक भी पैदा हुए

हमारे ही यहाँ !

हमारे ही प्रांगण में

बुद्ध ने दिया शांति का उपदेश!

 

सारे उपचार हैं हमारे पास

सारी विधियां, सब उपकरण!

हम इस तरह सम्पृक्त हैं

कि और नहीं हो सकते!

 

हमें कुछ भी और देखने

समझने, बोलने, सीखने

की ज़रूरत नहीं!

 

और यदि हमने ऐसा किया तो!

वह राजद्रोह होगा! 

पागल    

लोग प्यार से भी कह देते हैं पागल,

जैसे धत् पागल! 

और प्यार में हो भी जाते हैं पागल!

जैसे मेरा प्रिय फिल्मी गीत है,

‘मैं तेरे प्यार में पागल’ जहाँ 

शब्द पागल को,

दुहराता, तिहराता है गायक,

आलापते हुए! 

कुछ बता पाने के लिए प्यार का 

उन्माद, बेचैनी उसकी!

प्यार एक शब्द है, एक जुमला 

एक सच्चाई! वैसे ही, पागलपन 

एक शब्द है, जुमला, सच्चाई! 

प्यार ज़रूरी है, पागलपन बीमारी! 

लेकिन स्वस्थ को बीमार बनाने के 

इस युग में, हालाकि यह होता रहा है 

हर युग में, अब तो बल्कि उपचार 

आविष्कृत हुए हैं ज़्यादा! 

किन्तु, घटी है क्या मनुष्य की आज़ादी?

स्वाधीनता उसके व्यवहार 

की? क्या उसके उठने, बैठने 

चलने फिरने, बोलने बतियाने 

जवाब तलब के तौर तरीकों के लिए 

बन गए हैं इतने कठिन, कड़े पैमाने 

कि बस उन खांचों में फिट न हो 

पाना भी उसे घोषित करवा सकता है पागल?

 

संपर्क : ए-204, प्रकृति अपार्टमेंट्स, सेक्टर-6, प्लॉट नंबर 26, द्वारका, नई दिल्ली-110075; मोबाइल : 9508936173 ; ई-मेल : nilirag18@gmail.com

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