वरिष्ठ कवि और पत्रकार सुभाष राय ने पिछले दिनों कर्नाटक की एक विलक्षण संत कवि ‘अक्क महादेवी’ (12वीं शताब्दी) पर एक अद्भुत काम किया, जो न केवल पुस्तक के रूप में प्रकाशित हो चुका है बल्कि समूचे हिन्दी-समाज में विशेष रूप से प्रशंसित और चर्चित भी है। इस पुस्तक में पहली बार सुभाष राय ने हिंदी में उनके वचनों के लयात्मक भावांतरण को प्रस्तुत किया। ‘दिगंबर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ शीर्षक से प्रकाशित उनकी किताब इस अर्थ में भी अनूठी है कि उसमें छायानुवाद के साथ ही गहरा वैचारिक विश्लेषण भी मौजूद है।
उनका नया काम दक्षिण भारत की प्रसिद्ध संत कवयित्री आंडाल पर केंद्रित है, जो बारह आलवार संतों में से एक थीं। सुभाष जी का कहना है कि “पांचवीं-छठीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन में जिन महान कवियों, समाज सुधारकों और परिवर्तन के अग्रदूतों ने अतुलनीय योगदान किया, उनकी मानवीय सत्ता को कालांतर में देवसत्ता में बदल दिया गया। उन्हें मानवेतर और ईश्वरीय दिव्यता के कुहासे में लपेट दिया गया। उनके व्यक्तिगत जीवन की वास्तविकताओं को कल्पित कथाओं, अंतर्कथाओं के साथ इस तरह बुन दिया गया कि उनकी मानवीय मेधा, प्रतिभा और दिव्यता को कल्पित देवत्व से अलगाना कठिन हो गया। इतिहास के संरक्षण की लगातार उपेक्षा की गयी, मिथ को सिर माथे लगाकर रखा गया। आंडाल भी इससे अछूती नहीं रहीं। एक महान कवि का जीवन एक अनहोनी, अभूतपूर्व कपोल कल्पित कथा में बदल दिया गया। उन्हें विष्णु की पत्नी, लक्ष्मी की मधुर सहचरी बनाकर मंदिरों में बिठा दिया गया, उनकी पूजा-अर्चना होने लगी। उन्हें सुंदर मूर्तियों में ढालकर धर्मासनस्थ कर दिया गया। एक असाधारण स्त्री को देवी का दर्जा देकर मनुष्य के संघर्ष और स्वप्न में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका की चर्चा के सारे दरवाजे बंद कर दिए गए। आंडाल को खोजना होगा, उनकी मानवीय चेतना का स्पर्श करना होगा, उनके अजस्र प्रेम के स्रोत तक पहुँचना होगा। यह आज के समय में मनुष्यता के लिए, ख़ास तौर से स्त्रियों की गरिमा की स्थापना के लिए बहुत जरूरी है।”
‘सबद’ पर प्रस्तुत उनका यह यात्रा-संस्मरण उनके द्वारा ‘आंडाल को खोजने’ के इसी प्रयास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
असल में वैदिक काल से आज तक स्त्रियों के लिए मुक्ति की गंभीर प्रस्तावना कभी नहीं हुई। उन्हें लगातार दबाया गया, प्रताड़ित किया गया, अधिकार वंचित करके रखा गया। अधिकांश स्त्रियों ने इस दमन को नियति मानकर इसे स्वीकार कर लिया।
मैं आंडाल के विरल जीवन संगीत, उनकी रचनाओं के उत्तेजक मर्मभेदी स्वर की गहरी गूँज से भीतर तक भरा हुआ था। आठवीं-नवीं शताब्दी में आधुनिक समय-बोध का समकालीन जीवन संगीत, भयानक अंधकाल में एक महान स्त्री की प्रखर मुक्ति ध्वनि और उसकी परम्पराभंजकता मुझे दक्षिण के उस भव्य आभीर लोक की ओर खींच रही थी, जहाँ आंडाल ने 12 सौ बरस पहले जन्म लिया था।
मदुरै से मैं श्रीविल्लीपुथूर जा रहा था। वहीं अपनी पुष्पबाटिका में विष्णुचित्त को आंडाल मिलीं थीं। एक अनाथ, अनाम बच्ची की तरह। विष्णुचित्त उन 12 आलवार संतों में से एक थे, जिन्होंने छठीं से नवीं शताब्दी के बीच छिड़े भक्ति आंदोलन के दौरान दक्षिण के देह-मन को भक्ति के परमोल्लास से भर दिया था, जिन्होंने समाज में व्याप्त परम्परावादियों की बौद्धिक और शुष्क लोकोत्तर जड़ता के विरुद्ध लोकस्वर में परम सत्ता के गीत गाये और लोगों को गलियों में, पगडंडियों पर, घरों में नाचने-गाने और जीवन के आतंरिक संगीत को महसूस करने के लिए प्रेरित किया था। मैं एक नवम्बर को मदुरै पहुँच गया। यह आंडाल के देस में उनके पदचाप, उनकी देह-गंध खोजने की यात्रा थी। मैंने जो किताबों में पढ़ा था, उसे देखना था और जो नहीं पढ़ा था, उसे महसूस करना था। आंडाल विष्णुचित्त के घर पली-बढ़ीं, बड़ी हुईं, युवा के रूप में अत्यंत सुंदर। बड़े सघन केशों, विस्फारित आँखों और अभंग चितवन वाली। वे स्वयं कहती हैं अपने सौंदर्य के बारे में, छिपाती नहीं। इसी मदुरै से होकर वे श्रीरंगम गयी थीं, श्रीरंग से शादी रचाने। उनके जन्मस्थान की ओर जाते हुए मेरे मन में तमाम खयाल आ रहे थे। अपने समय की परंपरा को, समाज को, आचार्यों को, स्वयं अपने पिता को चुनौती देने वाली एक अनुपम मेधावी युवती को आखिर मंदिर में क्यों बिठा दिया गया है ? उसकी पूजा-अर्चना क्यों हो रही है ? मेरा मन तो उस पुष्पवान को देखने का था, जिसमें वह शिशु कन्या विष्णुचित्त को मिली थी। मैं उस घर को देखना चाहता था, जिसमें उसका पालन पोषण हुआ था। वह जंगल मेरे मन में बसा था, जिसमें वह अपने प्रिय किशन का पीछा करती रहती थीं, उसकी शरारतों के लिए उसे डांटती-फटकारती रहती थीं। पर मैं निराश हुआ। वह तुलसीवन अब नहीं है, वे जंगल भी विकास की भेंट चढ़ गए। वह आंडाल भी अब किताबों में हैं, मंदिर में तो बस उनकी मूर्ति है, जो बोलती नहीं, जो चहकती नहीं, जो हिलती-डुलती नहीं।
मैं श्रीविल्लिपुथूर पहुंच गया। मदुरै से डेढ़ घंटे दूर है यह नगर। यहाँ वटपत्रशायी का मंदिर है, जहाँ आंडाल के पोषक पिता विष्णुचित्त यानी पेरियालवार कभी प्रधान पुजारी हुआ करते थे। उसी से सटा हुआ आंडाल का मंदिर है। आंडाल के लिए तमिलनाडु में बनने वाला यह पहला पृथक मंदिर था। 16-17 वीं शताब्दी में नायक राजाओं ने इसे बनवाया। मंदिर में प्रवेशकर मुझे बहुत खुशी नहीं हुई। मैं सोचता रहा सारे बंधनों को तोड़ फेंकने वाली, मुक्त और अबाध प्रेम के गीत गाने वाली एक महान स्त्री को किस कैद में डाल दिया गया है। मन बहुत दुखी हुआ।
असल में वैदिक काल से आज तक स्त्रियों के लिए मुक्ति की गंभीर प्रस्तावना कभी नहीं हुई। उन्हें लगातार दबाया गया, प्रताड़ित किया गया, अधिकार वंचित करके रखा गया। अधिकांश स्त्रियों ने इस दमन को नियति मानकर इसे स्वीकार कर लिया। जिन्होंने इसका विरोध किया, उन पर और अत्याचार किये गए, उन्हें चुप कराने के हर संभव उपाय किये गए, उनकी हत्याएं भी की गयीं। फिर भी सारी स्त्रियों ने कभी पुरुषों की गुलामी स्वीकार नहीं की। हर काल में जलती मशालों की तरह अनेक ऐसी स्त्रियां दिखाई पड़ती हैं, जिन्होंने समाज में बराबर के अधिकार के लिए जूझने का संकल्प किया। पुरातनपंथी समाज से सीधे लड़ना बहुत आसान नहीं था, इसलिए उन्होंने भक्ति की राह पकड़ी। अपने इर्द-गिर्द एक काल्पनिक छाया निर्मित की, अपना भगवान गढ़ लिया और निकल पड़ीं उसकी महिमा के गीत गाते हुए। अपने समूचे कट्टरपन के बावजूद हमारा समाज हमेशा भगवानों से डरता आया है। एक ऐसी स्त्री को रोकना, छेड़ना मुश्किल होता है, जो अपनी अव्यक्त भगवत्तामय फैंटेसी के साथ बाहर निकल आयी हो। ऐसी प्रतिभावान स्त्रियों को, जिन्हें पराजित करना असंभव था, पुरुषों ने मूर्तियों में बदल दिया, उन्हें मंदिरों में ला बिठाया। उनकी पूजा शुरू कर दी।
आंडाल की भी यही दुर्गति की गयी। मैं मंदिर के गर्भगृह में था। वहां पुजारी से पूछा, “यहाँ किसी दीवार पर आंडाल के नाम विष्णु द्वारा लिखा गया कोई ‘प्रणय-पत्र‘ अंकित है, बताएँगे, वह कहाँ है ?” वह भूमा, भूमा से ज्यादा कुछ कह नहीं पा रहा था। मैंने पूछा, “क्या विष्णुचित्त का तुलसीवन यहीं है ? किधर है वो ?” वह अपने हाथों में दूर्वा और जल लिये बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे घूर रहा था। शायद सोच रहा हो, “यह कौन आ गया। यह दर्शन से सतुष्ट नहीं है, इसे भूमा से भी ज्यादा कुछ और चाहिए”। मैं समझ गया, यह सिर्फ पुजारी है, इसे आखिर कैसे पता होगा। लेकिन पंक्ति में खड़ी एक सांवली लड़की को मेरे सवालों में दिलचस्पी नजर आयी। वह ‘प्रणय-पत्र‘ के बारे में तो कुछ नहीं बता पायी लेकिन उसने बताया कि इस भवन के चारो ओर कुछ वनस्पतियां, कुछ पुष्प-लताएं आप देख सकते हैं। यहीं आंडाल का जन्म हुआ था।
मैं ढूंढ रहा था पुराने शिलालेख, जिसके बारे में मैंने पढ़ रखा था। मदुरै के चोल, पांड्य और नायक राजाओं ने तमिलनाडु में वास्तुकला को अपने शिखर तक पहुँचाया। वे अधिकांश कला-साहित्य प्रेमी थे। कुछ तो स्वयं भी बड़े साहित्यकार थे। छठीं शताब्दी के बाद राज्याश्रय में ही मदुरै कला और साहित्य के महान केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। यहाँ जैन और बौद्ध विद्वानों का जमावड़ा था। महान बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग और बोधिधर्म भी यहाँ कुछ समय के लिए रहे। जैन आचार्यों ने आपसी परामर्श के लिए इसी शहर में ‘संगम‘ केंद्रों की स्थापना की, जहाँ जैन कवि, लेखक आचार्य जुटते थे और धर्म एवं साहित्य की चर्चा करते थे। ऐसे तीन संगमों का उल्लेख मिलता है। आखिरी संगमकाल में रची गयी रचनाओं का ही कुछ अंश अब प्राप्त है। बाकी साहित्य संकलन और संरक्षण के अभाव में नष्ट हो गया। इन साहित्य गोष्ठियों को संरक्षण देने वाले राजाओं ने सुंदर कलात्मक शिल्प के साथ अनेक मंदिर बनवाये और मंदिरों में जगह-जगह शिलाओं पर अपने समय के साथ तत्कालीन गतिविधियों के बारे में सूचनाएं अंकित की। मैं वटपत्रशायी और आंडाल के मंदिरों की भीतरी भित्तियों की पूरी पड़ताल कर चुका था। कहीं कुछ नजर नहीं आया। निराश बाहर निकल आया। फिर अचानक अंतर्प्रेरणा हुई कि बाहर की दीवारें चलकर देखनी चाहिए।
मैं फिर परिसर के भीतर मुड़ गया। आंडाल के मंदिर से निकलते हुए मैंने देखा, वहां दर्जनों दूकानों में उनकी भव्य सुंदर तस्वीरें, मूर्तियां बिक रहीं थीं। मुझे मूर्तियों से कुछ लेना-देना नहीं था लेकिन उनकी एक सुंदर तस्वीर सिर्फ याद के लिए खरीद ली। दूसरी तरफ मुड़ा तो किताबों की कुछ दूकानें नजर आईं। मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। भागता हुआ मैं एक दूकान में दाखिल हुआ। “आंडाल पर कुछ है क्या?” दूकानदार ने कई किताबें मेरी ओर बढ़ा दीं। सब तमिल में। मैंने पूछा, “कोई अंग्रेजी में है क्या ?” उसने मुंह बनाया, बोला, “आल इन तमिल, नो इंगलिश” मेरा मुंह उतर गया। हम अपने ही देश में कई बार भाषा के कारण कितने निरीह और अपंग हो जाते हैं। हमारी अपनी ही विरासत मूल भाषा के अलावा हमारी अपनी दूसरी भाषाओं में उपलब्ध नहीं है।
मुझे मंदिर की बाहरी दीवारों का मुआयना करना था लेकिन वहां मोबाइल और कैमरा ले जाने की अनुमति नहीं थी। हम लोग कितने जड़ हैं समझ में नहीं आता। हम अपनी विरासतें दूसरों से छिपाकर क्यों रखना चाहते हैं? दुनिया को क्यों नहीं देखने देना चाहते ? ऐसा क्या है, जो छिपाया जाना चाहिए ? वहां तस्वीर खींचनी हो तो उसकी लम्बी प्रक्रिया है। खतों-किताबत करनी पड़ेगी, इजाजत लेनी पड़ेगी। मेरे पास कोई चारा नहीं था। मैं हिम्मत करके अपना मोबाइल छिपाकर ले गया। मुझे छोड़कर दीवारों की ओर जाने वाला कोई और वहां नहीं दिखा। मैंने हैरत से देखा, पूरी दीवार ही ऐसे पत्थरों से बनी थी, जिस पर तमिल लेख अंकित थे। मैं पढ़ नहीं सकता लेकिन मुझे रोमांच हो आया। मैंने ढेर सारी तस्वीरें लीं, वीडियो भी बनाई। इस भाषा के लिए मैं अंधरा हूँ, देखूँगा, कोई तमिल मित्र इसका हिंदी रूपांतर कर दे शायद। यह मेरे लिए खजाना था। मैं उनकी मूर्ति का दर्शन करके नहीं, इन शिलालेखों के पास पहुंचकर शायद आंडाल के कुछ नजदीक पहुँच पाया।
मैं मदुरै में, विल्लीपुथूर में घूमा। उनके जन्म स्थान पर उन्हें कविताएं लिखते, पिता के काम में सहयोग करते, अहीर दोस्तों के साथ खेलते, वनांचल में फूलों, पक्षियों से बात करते महसूस करने की कोशिश की। यहीं वटपत्रशायी को उन्होंने नंदमहल की तरह अपनी रचनाओं में दर्ज किया है। यहीं से उनकी बारात तिरुचिरापल्ली स्थित रंगनाथ मंदिर तक गयी थी, जहाँ उन्होंने श्रीरंग से शादी रचाई थी। यही उनके कृष्ण हैं, जिनसे अगाध प्रेम उनकी कविताओं में दिखाई पड़ता है। यह एक महान कवि की कथा भर है। यह आज भी कथा ही है। श्रीरंगम में भी वे विष्णु के साथ मूर्तिवत स्थापित हैं। ये मूर्तियां बेजान हैं। लोगों की श्रद्धा का क्या करें ? ज्यादातर लोगों को देवता या देवियां चाहिए, जो उनकी इच्छाएं पूरी कर सकें। वे खुश होते होंगे दर्शन करके। मैं श्रीरंगम में भी ‘शेष मंडप‘ खोजता रह गया। वहां मंदिर के सारे शिलालेख रखे गए हैं। मेरे साथ पढ़ा-लिखा गाइड भी था। लेकिन मंदिर के गाइड भी सिर्फ दर्शन कराने और कथाएं सुनाने में सिद्धहस्त हैं। मेरे गाइड के पास भी मेरे सवालों के जवाब नहीं थे। मंदिर कावेरी से घिरे एक द्वीप की तरह विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, इसलिए किसी आदमी के लिए अकेले समूचा इलाका घूमना और देखना संभव नहीं।
मदुरै जाते समय बहुत मैं बहुत खुश था। मैं जानता था कि वहां एस वेंकटेशन रहते हैं। तमिल के विख्यात साहित्यकार, तमिल प्रगतिशील लेखक और कलाकार संघ के मानद अध्यक्ष, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्त्ता और पूर्व सांसद। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘कोवल कोट्टम‘ के लिए उन्हें 2011 में साहित्य एकेडेमी अवार्ड मिल चुका है। सोचा था उनसे मिलकर आंडाल पर कोई नयी दृष्टि मिल सकेगी लेकिन बहुत कोशिश के बाद भी उनसे संपर्क नहीं हो सका। उनके फोन की घंटी मैंने दर्जनों बार बजायी लेकिन वह उठा नहीं। उन्हें एक संदेश छोड़ आया हूँ। शायद वह उसे कभी पढ़ लें। एक महाविद्यालय में तमिलभाषी लेकिन हिंदी की प्रवक्ता डा. रोहिणी पांडियान से भी चर्चा हुई थी लेकिन छुट्टियां होने के कारण वे भी अपने गाँव चली गयीं थीं। उनसे बात हुई लेकिन मिलना न हो सका।
मैं कहूंगा कि इस यात्रा में आंडाल ने मुझे अपनाया, उन्होंने अपनी पीड़ा से अवगत कराया और अपने दरवाजे थोड़े खोले। एक मेधावी और विलक्षण स्त्री मंदिरों और कर्मकांड से बाहर आना चाहती है। जिसने अपने समय में पारम्परिक भक्ति आंदोलन के सामने भी एक बड़ी चुनौती उपस्थित कर दी थी, जिसने हमेशा अवज्ञा और उल्लंघन का रास्ता अपनाया, भक्ति की सीमाओं को तोड़ा, उसे नया अर्थ दिया, उसे परम भक्त बनाकर पूजा जाना आखिर कैसे पसंद आएगा। यह सही है कि तमिल भूमि पर उनका बहुत सम्मान है, उनका बहुत आदर है। साल भर उनकी याद में अनेक उत्सव चलते रहते हैं। अगस्त और दिसंबर का महीना तो विराट उत्सव में सराबोर रहता है। अगस्त में उनका जन्म दिन पड़ता है और दिसंबर में उनकी रचना ‘तिरुप्पावै‘ के तीस गीतों को आधार बनाकर महीने भर तमिल स्त्रियां सरोवरों, नदियों में स्नान करती हैं, उनके गीत गाती हैं। विवाह समारोहों में उनका ‘स्वप्न विवाह गीत‘ जरूर गाया जाता है। यह बुरा नहीं है लेकिन यह अब एक विराट उत्सवधर्मी कर्मकांड से ज्यादा कुछ नहीं है।
हमारे समाज को, खासकर स्त्रियों को वह आंडाल चाहिए, जिसने न केवल स्त्री सत्ता की स्थापना की बल्कि आठवीं-नवीं शताब्दी के अंधकाल में लड़कियों को लम्बी नींद से जगाया, उन्हें अपने भविष्य के प्रति सचेत किया और अपना लक्ष्य सुनिश्चित करने तथा उसे पाने के लिए प्रेरित किया। इतना ही नहीं उनका नेतृत्व भी किया। उन्होंने स्वयं अपने जीवन में असंभव लक्ष्य चुना और सारी परम्पराओं को धता बताते हुए उसे हासिल करने के कठिन रास्ते पर चल पड़ीं। वे कृष्ण के गीत जरूर गाती हैं लेकिन उस कृष्ण को भगवत्ता प्रदान नहीं करती, उसको अपनी ही गली में बुलाना चाहती हैं, बुलाती भी हैं। वे स्त्री सत्ता के सामने सर्वसत्तात्मक विष्णु को भी झुकने के लिए विवश कर देती हैं। विष्णु भी विष्णु नहीं रहता। वह पवित्रता-अपवित्रता की रूढ़ियों को तोड़कर आंडाल की देह-गंध की इच्छा करता है। वह उन्हें प्रेमपत्र लिखता है। समाज से अपेक्षा करता है कि वह आंडाल को भी उतना ही सम्मान दे, जितना हमें देता है। यह कथाएं हैं लेकिन ईश्वर और भक्त के पारम्परिक रिश्तों के विरुद्ध अगर उस समय कथाएं कहीं गयीं तो यह बहुत साधारण बात नहीं थी। अपने पिता को वे ‘कोदा‘ के रूप में मिलीं थीं लेकिन उन्होंने अपनी पुत्री की इसी अद्वितीयता को देखकर उन्हें ‘आंडाल‘ कहा। आंडाल यानी विष्णु पर राज करने वाली। इस आशय से वह भक्त मात्र नहीं थीं, उनमें महान सत्ताओं को भी अपने कदमों में झुका देने की सामर्थ्य थी। वे लगातार परम्पराओं के खिलाफ खड़ी हुईं, उन्होंने अवज्ञा की राह पकड़ी, उन्हें किसी से डर नहीं लगा। इस कारण उन्हें अलग-थलग करने की भी कोशिश हुईं लेकिन वे अपने रास्ते से डिगीं नहीं। इस तरह उन्होने अपने समय के भक्ति मानकों का भी उल्लंघन किया। मुझे उसी आंडाल को खोजना है, उसे ही सबके सामने लाना है। उनके दरवाजे पर खड़ा सांकल बजा रहा हूँ, उनके आने और खुद को प्रकट करने का इंतजार कर रहा हूँ।
सुभाष राय वरिष्ठ कवि-लेखक और सम्पादक हैं। उत्तर प्रदेश के एक गाँव बड़ागाँव (मऊ) में जन्मे सुभाष राय ने कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिंदी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ से हिंदी भाषा और साहित्य में स्नातकोत्तर एवं विधि की पढ़ाई पूरी करने के उपरांत उत्तर भारत के विख्यात संत कवि दादूदयाल के रचना संसार पर शोधकार्य किया। आपातकाल में आंदोलन तथा जेलयात्रा की। चार दशकों से कई प्रतिष्ठित समाचारपत्रों में शीर्ष जिम्मेदारियाँ संभालने के बाद सम्प्रति लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत। साहित्यिक पत्रिका ‘समकालीन सरोकार’ का एक वर्ष तक संपादन। दो कविता संग्रह ‘सलीब पर सच’ और ‘मूर्तियों के जंगल में’, एक निबंध संग्रह ‘जाग मछन्दर जाग’ और संस्मरण एवं आलोचनात्मक लेखों का एक संग्रह ‘अंधेरे के पार’ प्रकाशित। हाल में रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से कन्नड़ संत कवि के जीवन पर पुस्तक ‘दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ प्रकाशित हुई है। नयी धारा रचना-सम्मान, माटीरतन सम्मान एवं देवेन्द्रकुमार बंगाली स्मृति कविता सम्मान से सम्मानित। संपर्क : raisubhash953@gmail.com, 9455081894