अनुवादकविता

मिलारेपा की कविताएं

बौद्ध संन्यासी मिलारेपा (1012-1135) तिब्बत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण संतों और कवियों में से एक माने जाते हैं। तिब्बत के श्रद्धालु जन उन्हें महान योगी, महान संत और महान कवि मानते हैं। अपने विचारों का प्रचार वह गीतों के माध्यम से करते थे। ऐसा भी कहा जाता है कि तिब्बती संस्कृति के वे आधार-व्यक्तित्व हैं। उनका जीवन अत्यंत रोचक है कुछ-कुछ संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि की ही तरह। मिलारेपा के संबंध में कथा है कि उन्होंने अपनी माँ के कहने पर पारिवारिक प्रतिशोध के लिए तंत्र-विद्या का प्रयोग कर कई व्यक्तियों की हत्या कर दी। इसके बाद उन्हें पश्चाताप हुआ और ज्ञान-प्राप्ति के लिए उन्होंने गुरु की तलाश प्रारंभ की और भारतीय महासिद्ध नरोपा के शिष्य मारपा के पास पहुँचे। लंबी साधना और तपस्या के बाद मारपा ने मिलारेपा को दीक्षा दी किन्तु मिलारेपा की साधना और सिद्धि के समक्ष वे भी नतमस्तक हो गये। ऐसा कहा जाता है कि फिर वे दोनों गुरु-शिष्य भारत आए और महासिद्ध नरोपा से मिले, नरोपा ने मिलारेपा को ‘अंधकार से डूबे उत्तर में चमके प्रकाश’ की संज्ञा दी और उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की शिक्षा दी। मिलारेपा ने ग्यारह महीने तक लोडग तग्ञ की गुफा में एकांत में साधना की, जिसकी समाप्ति पर उन्होंने अपना पहला गीत गाया था। इन्होंने अपने जीवन काल में लगभग एक हजार गीतों की रचना की जो ‘मिलोरेपा के सहस्र गीत’ नाम से प्रचलित हैं। संसार की सारहीनता का तीव्र बोध उनकी कविताओं का मुख्य स्वर है।

वरयाम सिंह जेएनयू के रूसी अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वे हिंदी, अंग्रेज़ी, पहाडी, रूसी और पंजाबी आदि भाषाओं के विद्वान हैं। उनके पहाड़ी में तीन कविता-संग्रह, हिंदी में दो कविता-संग्रह, रूसी साहित्य पर विभिन्न पत्रिकाओं और पुस्तकों में लेख प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने बनिन की रचनाओं के हिंदी अनुवाद-संकलन का संपादन किया है। उनके द्वारा रूसी कविता के हिंदी में बीस अनूदित संकलन प्रकाशित हैं। वे रूसी कविता, बेलारूसी कविता, किर्गीज कविता को हिन्दी में प्रस्तुत करने वाले प्रसिद्ध हिन्दी अनुवादक हैं। तिब्बती महाकवि मिलारेपा की कविताओं का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद किया है। उन्हें हि.प्र. अकादमी, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, म.प्र. साहित्य परिषद का रामचंद्र शुक्ल सम्मान, रूस सरकार का पुश्किन सम्मान इत्यादि सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

एक  

प्रणाम, अनुवादक मार्पा को प्रणाम!

यहां एकत्र हुए हैं मेरे सब शिष्य और शिष्याएं-

अडिग आस्था की सन्तान-ये सब

प्रार्थना कर रहे हैं सच्ची निष्ठा के साथ ।

 

यदि कोई आवश्यकता से अधिक समय तक

मित्रों के साथ रहता है

वे सब उससे ऊब जाते हैं,

ऐसी मित्रता में जीना घृणा और उपेक्षा की ओर ले जाता है

मानव सहज प्रवृति है : प्रतीक्षा करते रहना,

मांग करते रहना सामर्थ्य से अधिक की,

और साथ रहना आवश्यकता से अधिक समय तक ।

 

मानव स्वभाव में जुझारूपन

सिद्धांतों के उल्लंघन की ओर ले जाता है।

विनाशकारी होती हैं भले कार्यों के लिए बुरी संगत,

अशुभ वचन बुराई का कारण बनते हैं।

यदि उन्हें भीड़ के बीच कहा गया हो,

कौन दोषी है और कौन निर्दोष-यह विवाद

और वृद्धि करता है शत्रुओं की संख्या में।

संकीर्ण मतवाद और धर्मान्धता

और अधिक पापी, और अधिक दुष्ट बनाते हैं मनुष्य को।                                                                                                                                     

श्रद्धालुओं के उपहारों पर प्रतिक्रिया देने की अनिवार्यता

बुरे विचारों को जन्म देती है,

सांसारिकों के उपहार अशोभनीय होते हैं।

संगप्रियता स्वतः पैदा करती है अप्रेम

और अप्रेम में पनपती है अरुचि और घृणा ।

जितने अधिक घरों के तुम मालिक बनोगे

उतने ही अधिक कष्टप्रद होंगे जीवन के अंतिम वर्ष ।

कष्ट और रूदन सचमुच असहनीय होते हैं

विशेषकर एकांत में रह रहे योगी के लिए।

 

मैं मिलारेपा, संन्यासी के शांत शरणस्थल की ओर जा रहा हूं

ताकि एकांत में जीवन बिता सकूं।

शिष्यो, आश्चर्यजनक हैं तुम्हारी तपस्या की सफलताएं

तुमसे, बार-बार मिलते रहने की

मुझे हमेशा बहुत इच्छा रहेगी।

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दो  

प्रभु दोर्जे चंग, तू अनश्वर है,

मुझ निर्धन को तू आशीर्वाद दे,

कि तेरी कृपा से मैं यह जीवन

व्यतीत कर सकूं इस संसार में कहीं एकांत में,

जो भले ही नश्वर और भ्रामक है।

जहां हृदय कराहता है दुखों के बोझ से।

 

मेरी चरागाहों पर जहां मेरी भेड़, बकरियां और गायें चरती थीं

गुग्थांग के नैसर्गिक सौंदर्य के बीच अब दुष्ट प्रेतात्माएं रह रही हैं,

यह भी जीवन की भ्रामकता का प्रमाण है

जो ध्यान के लिए प्रेरित कर रहा है मुझे।

 

चार दीवारों और आठ स्तंभों वाला मेरा घर

जिसे बहुत मेहनत के साथ बनाया गया था

अब शेर के जबड़े के जैसा दिख रहा है,

चार कोण और आठ नोकों वाली छत

गधे के कानों जैसी लग रही है,

यह भी प्रमाण है संसार की भ्रामकता का

जो प्रेरित कर रहा है मुझे ध्यान के लिए।

 

मेरा उपजाऊ खेत तिकोन वार्मा

भर गया है घास और झाड़ियों से,

मेरे चचेरे भाई, मेरे संबंधी

शत्रुओं की तरह मुझसे लड़ने के लिए तैयार बैठे हैं।

यह भी प्रमाण है संसार की भ्रामकता का

जो प्रेरित कर रहा है मुझे ध्यान के लिए।

 

मेरे दयालु पिता मिला शर्ग्याल

चले गये यह संसार छोड़ कर,

मेरी प्यारी मां नयांग-व्सा-कार्गयेन   

बदल गई है सफेद हड्डियों के ढेर में।

यह भी प्रमाण है संसार की भ्रामकता का

जो प्रेरित कर रहा है मुझे ध्यान के लिए।

 

मेरे गृह देवता और गुरु कुंचोग-ल्हाबुम

अब किसी दूसरे के यहां नौकरी कर रहे हैं,

मेरी पवित्र पुस्तकों और धार्मिक ग्रंथों में

चूहों के बिल और पक्षियों के घोंसले बन गये हैं ।

यह भी प्रमाण है संसार की भ्रामकता का

जो प्रेरित कर रहा है मुझे ध्यान के लिए।

 

मेरे चाचा युंग-ग्याल

मेरे शत्रुओं से मिल गये हैं

मेरी इकलौती बहन पेता-गेन-कित

घर छोड़ कर चली गई है पता नहीं कहां।

यह भी प्रमाण है संसार की भ्रामकता का

जो प्रेरित कर रहा है मुझे ध्यान के लिए।

 

मेरे प्रभु, करुणानिधान,

आशीर्वाद दे मुझे

 

कि संन्यास ले सकूं मैं पूरे जीवन के लिए।

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तीन    

बुद्धि की एकाग्रता को मैंने कभी विकृत नहीं होने दिया

मग्न रहा प्रेम और करुणा के चिंतन में इतना

कि मैं भूल गया अपने और पराये के बीच का अंतर ।

 

वर्षों से मैं गुरु के ध्यान में मग्न रहा।

छाया रहा मेरे ऊपर गुरु का आलोक।

मैं भूल गया उन सब के विषय में

जो शासन करते हैं अधिकार और शक्ति के बल पर ।

 

वर्षों से मैं अपने देवताओं के ध्यान में मग्न रहा

मुझसे वे जैसे अविच्छिन्न थे,

मैं भूल गया अपना सांसारिक शरीर का आवरण ।

मैं वर्षों से मग्न रहा संचयित सत्यों के चिंतन में

भूल गया सब कुछ जो कहा गया है

बार-बार लिखी और छपी पुस्तकों में।

 

मैं मग्न रहा उस एक सत्य के विषय में

खो बैठा उसका ज्ञान जो अज्ञान है

भटकाता है जो हमें रास्ते से।

मैं मग्न रहा उन तीन कार्यों के विषय में

और भूल गया भय और आशाओं को।

 

मैं मग्न रहा इस जीवन और भावी जीवन के चिंतन में

जो वास्तव में एक ही है

मैं भूल गया जन्म और मरण का सारा भय।

वर्षों से मैं मग्न रहा अपने अनुभव के अध्ययन में

भूल गया जानना मित्रों और भाइयों के विचार।

वर्षों से मग्न रहा आध्यात्मिक सिद्धि की राह पर

मग्न रहा नये से नया अनुभव ग्रहण करने में

और भूल गया मैं सब आस्थाएं और सिद्धांत।

 

मैं मग्न रहा उस अजन्मे, अक्षुण्ण और अस्तित्वहीन के ध्यान में

और मैं भूल गया हर तरह के निर्धारित लक्ष्यों को ।

मैं मग्न रहा सब दृश्यों, सब प्रक्रियाओं को

धर्मकाय के रूप में देखने में

और भूल गया बुद्धि से उत्पन्न सारे तर्क।

 

वर्षों से मैं मग्न रहा अपनी बुद्धि को

स्वतंत्रता की अरचित अवस्था में सुरक्षित रखने में

और भूल गया मैं रूढ़ियों और प्रथाओं को।

मग्न रहा मैं वर्षों से शरीर और बुद्धि के बीच

सामंजस्य बनाये रखने में

और भूल गया मैं दंभी शक्तिशालियों के गर्व को।

 

वर्षों से मैं मग्न रहा अपने भौतिक शरीर को

संन्यासी का आश्रम बनाने में

और भूल गया मठ के जीवन के संतोष और विश्राम को।

अकथित की अर्थवत्ता को जानने में मग्न रहा,

भूल गया शब्दों के मूल का अध्ययन करना

भूल गया उनकी व्युत्पत्ति को ।

 

अब तुम विद्वान् पंडित

मेरे शब्दों की व्याख्या ढूंढते रहो अपने आधिकारिक ग्रंथों में !

Courtesy : Google Images

2 Comments

  1. अनमोल कविताओं की एक अनमोल पुस्तक और बहुत ही प्रभावी अनुवाद। कविता तत्कालीन समाज के चित्र और विसंगतियों का आभास देती है

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