दुमका, झारखंड में जन्मे हिंदी के चर्चित कवि-लेखक राहुल राजेश कविता के साथ-साथ यात्रा-वृतांत, संस्मरण, कथा-रिपोर्ताज, समीक्षा एवं आलोचनात्मक निबंध-लेखन में सक्रिय हैं। देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हुई हैं। कुछ रचनाएँ अंग्रेजी, उर्दू, मराठी, उड़िया आदि भाषाओं में अनूदित हैं। अब तक तीन कविता-संग्रह और गद्य की चार पुस्तकें प्रकाशित हैं। पहला कविता-संग्रह ‘सिर्फ़ घास नहीं’ 2013 में साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से; दूसरा कविता-संग्रह ‘क्या हुआ जो’ 2016 में ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से और तीसरा कविता-संग्रह ‘मुस्कान क्षण भर’ 2021 में सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर से प्रकाशित। पहला गद्य-संग्रह ‘गाँधी, चरखा और चित्तोभूषण दासगुप्त’ 2015 में ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से; दूसरा गद्य-संग्रह ‘आखिर कैसी हिंदी चाहते हैं हम?’ 2021 में प्रलेक प्रकाशन, मुंबई से और तीसरा गद्य-संग्रह ‘कुछ यूँ जीकर देखें जरा’ 2024 में प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित। चौथी गद्य-पुस्तक ‘ज़िंदगी लॉकडाउन’ (कोरोना डायरी) 2024 में ही सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली से प्रकाशित। कन्नड़ और अंग्रेजी के युवा कवि अंकुर बेटगेरि की अंग्रेजी कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘बसंत बदल देता है मुहावरे’ 2011 में यश पब्लिकेशंस, दिल्ली से प्रकाशित। राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से 1996 में प्रकाशित जवाहर नवोदय विद्यालयों के बच्चों की कविताओं के संग्रह ‘बोलने दो’ में कुछ कविताएँ संकलित। संप्रति भारतीय रिज़र्व बैंक में प्रबंधक।
राहुल राजेश आस-पास के जीवन के साधारण विवरणों को काव्यात्मक रूप से दर्ज करने वाले कवि हैं। उनकी निगाह इन जीवनानुभवों का केवल सौन्दर्य ही नहीं अपितु त्रासदियों और विडंबनाओं को दर्ज करती हैं। एक शहर की आंतरिक लय से लेकर समाज के श्रमशील समाज की अंतरध्वनियों को उनकी कविता बेहद बारीकी से अंकित करती है। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नयी कविताएं।
लिखावट
पहले बायीं ओर झुकी हुई थी
फिर हुआ कि दायीं ओर झुकी हुई
ज्यादा सुंदर और सुगढ़ होती है
इसलिए दायीं ओर झुक गयी
क्योंकि बायीं ओर तो
प्राय: सबकी झुकी होती है
इसलिए खास नहीं होती
बहुत आम होती है
आरंभ बायीं ओर से हुई
और जब बायीं ओर सध गयी
तब दायीं ओर जाने का जोर पकड़ा
चाचा ने फिर दुहराया
ये बायीं ओर झुकी हुई
बहुत बचकानी लग रही
दायीं ओर झुकाने का अभ्यास करो
वैसे सबसे सुंदर तो
सीधी ही लगती है
पिता की न बायीं ओर झुकी हुई थी
न दायीं ओर तो मुझे भी बल मिला
और दायें-बायें के सुदीर्घ अभ्यास से
मुक्त होकर सीधी को साध लिया
लेकिन दायीं-बायीं-सीधी से हटकर भी
एक अलग किस्म थी एकदम छल्लेदार
स्कूल के दिनों में संतोष सिन्हा की
बिल्कुल ऐसी ही थी
अंग्रेजी में वह मैन या वुमन लिखता तो
न तो एम समझ में आता न एन न डब्ल्यू
बस छल्लों का तिलिस्म नजर आता
अजय कृष्णा एकदम सीधी लिखता था
पर हर अक्षर अलग अलग, इतना अलग
कि उनके बीच प्रायः छल्ले पिरोने पड़ते
तब जाकर उनके मतलब निकलते
मेरी तो सीधी सध गयी थी
लेकिन अक्षर साथ-साथ होते थे
तो बगैर किसी बिचौलिये के भी
अपनी बात साफ-साफ कहते थे
पढ़-लिखकर
संतोष सिन्हा डॉक्टर बना
अजय कृष्णा टेलीफोन विभाग में बाबू
और मैं कवि-लेखक
न बायीं-दायीं, न सीधी, न छल्लेदार
बस टेढ़ी-मेढ़ी होती तो क्या
मुझे भी गाँधी बना देती
मेरी लिखावट?
कलकत्ता
केवल बंग-बालाओं का
लावण्य नहीं है कलकत्ता
सोनागाछी से भागकर नेपाल में
बस गयी और वहाँ फँस गयी
उस लड़की का श्राप भी है कलकत्ता
हवा में बेलौस झूलता
हावड़ा ब्रिज भर नहीं है कलकत्ता
लाल लंगोट बाँधकर गंगा में छप्प से
कूद गया शहर भी है कलकत्ता
भातेर घूम में दिन-दोपहर
अलसाता भर शहर नहीं है कलकत्ता
राइटर्स बिल्डिंग के सामने लाल दीघी में
भरी दोपहर बंसी डालकर आँखें गड़ाये
जागता शहर भी है कलकत्ता
केवल बरतानिया के बासी वैभव ढोता
पुरातन अजायबघर नहीं है कलकत्ता
हिंदुस्तान की नई इबारतें लिखने वाला
शुरुआती शहर भी है कलकत्ता
गलत नहीं कह रहा तो
बंगालियों से कहीं अधिक अब बिहारियों
और मारवाड़ियों का शहर भी है कलकत्ता
केवल कॉलेज स्ट्रीट के कॉफी हाउस में नहीं,
फेयरली प्लेस में बेचूजी की चाय दुकान पर
उबलता शहर भी है कलकत्ता
सिर्फ सिटी ऑफ जॉय नहीं है कलकत्ता
जीपीओ के दाएँ-बाएँ नानाविध स्वांग भरते
भिखारियों का शहर भी है कलकत्ता
माछ, मिष्टी और रबींद्र संगीत के
रसिकों का ही नहीं, कदम कदम पर अड़े
कानूनचियों का शहर भी है कलकत्ता
गुस्ताखी माफ़ हो, सिर्फ इंकलाबों का नहीं,
हड़तालों का शहर भी है कलकत्ता
अब इसे मोहब्बत नहीं तो और क्या कहें
कि बावजूद इसके, मेरी पसंद का
शहर है कलकत्ता!
कंघी
सारी जेबें टटोल लीं
तब भी न मिली
तो अहसास हुआ, जाऽऽ
घर में ही छूट गई कंघी
संयोग भी कैसा कि
बैग या दराज में भी
जो पड़ी रहती थी
न जाने कहाँ बिला गई
वो एक्स्ट्रा कंघी
आइने के सामने बेबस खड़ा
अपना ही चेहरा
कम अपना-सा लगा
सूत भर ही हिले थे केश
लेकिन अंदर का आत्मविश्वास
अब डिगा कि तब डिगा
मेरी लाचारी पर मेरा ही चेहरा
मुस्कुराता दिखा आइने में
तो मैं भी मुस्कुरा उठा
खुद को तसल्ली देते हुए
क्या हुआ, एक दिन गुजार लूँगा
बगैर कंघी ही
पर जब भी वहाँ होऊँ
या हाथ-मुँह धोऊँ तो
हाथ बरबस जेब तक
पहुँच जाए और कंघी का
न होना याद आ जाए
याद आने भर की बात होती
तो कोई बात भी होती
पर यहाँ तो कंघी की कमी
बुरी तरह खल रही थी
और बाहर से ज्यादा
अंदर तलाशी चल रही थी
घड़ी पहनी
चश्मा पहना
कलम खोंसी
रूमाल रखा
गाड़ी की चाभी रखी
आईडी संभाली
बटुआ ठूँसा
पर वही छूट गई
कि वरीयता क्रम में
सबसे पीछे थी कंघी…
खाना का डब्बा छूट जाए
तो चलो बाहर खा लेंगे
घड़ी छूट जाए तो
कहीं और देख लेंगे
यहाँ तक कि बटुआ भी
छूट जाए तो काम चला लेंगे
और तो और मोबाइल भी
छूट जाए तो इतनी छटपटाहट न होगी
फेसबुक, वाट्सऐप शाम को देख लेंगे
पर कंघी छूट गई तो
दिन भर छटपटाते ही रहेंगे
अब बालों को झटक कर
ऊँगलियों से संवारने की
न तो उमर रही
न ये जगह सही
अच्छा हुआ
बड़े साहब ने नहीं बुलाया
किसी बैठक में बैठना नहीं पड़ा
सबके सामने कुछ बोलना नहीं पड़ा
वरना किसी से मजबूरन माँगनी
या खरीदनी पड़ जाती कंघी
मानो न मानो
फर्क पड़ता है
संवरे बाल
फिर से संवार लेने से
हौसला बढ़ता है
दुमका वाले बुजुर्ग नाई
महादेव बाबू की बात याद आई–
बाल माथे का मुकुट होता है, राहुल बाबू!
(और उनका कहा यह भी
कि आदमी बूढ़ा बैद्य और
जुआन नौआ खोजता है…)
इन सबसे ऊपर उठ भी जाऊँ तो
शीशे के सामने जरा झुककर
बालों में ही नहीं, मूँछों पर भी
कनपटी ही नहीं, भौंहों पर भी
जतन से, अदा से कंघी करने की
उस उम्रदराज आदत से कैसे पार पाऊँ
औरतें अपने बैग में
कितना कुछ तो रखती हैं
अपने सिंगार-पटार के लिए
हम मर्दों के लिए तो
बस यही इकलौती चीज है
याने जेब में कंघी!
औरतें बेतकल्लुफ
साझा कर लेती हैं
इनमें से कुछ भी
यहाँ तक कि निहायत
निजी चीजें भी
पर हम मर्दों में
यह मादा बेतकल्लुफी
क्या खाक बची
इस कोरोना काल में तो
बची-खुची बेतकल्लुफी भी
नापाक हुई, खाक हुई
ऐसे में कोई एक बार दे भी दे
दिन भर में कितनी बार देगा भला
और बार-बार माँगने के लिए
कलेजा भी तो चाहिए
पर उस मुई आदत का क्या करें
और उस उपकार को भी
कैसे भूल जाएँ
जो कंघी करती आई है
जब भी कंघी करता हूँ
बालों के साथ-साथ सिर की
मीठी मालिश भी तो होती है
सिर में दर्द हो, तनाव हो तो
कस के कंघी कर लेने से
यकीनन थोड़ी राहत मिलती है
शाम को निकलते-निकलते भी
आखिरी बार हाथ जेब में चला गया
तो फिर आ गई हँसी
पर रस्ते में एक बार भी
याद नहीं आई कंघी!
घर पहुँच कर तसल्ली से
बालों में देर तक की कंघी
महसूसते हुए बरबस कि
जेब में बटुए से
जरा भी कम जरूरी नहीं है
जेब में कंघी!!
लंच टाइम
लंच करके निकला हूँ बाहर
बरसों बरस से यूँ ही टहलना जारी है बदस्तूर
दुमका धनबाद पटना दिल्ली अहमदाबाद
कलकत्ता होते हुए अब मुंबई तक मेरे साथ
चली आई है यह आदत
धूप धूल बारिश- सबको पीछे ठेल-ठालकर
सेहत की चिंता से ज्यादा बस यही चाह
कि घड़ी दो घड़ी के लिए ही सही
बदल जाए अंदर-बाहर की आबो-हवा
बदल जाए थोड़ा मन-मिजाज
देख लूँ बाहर की धड़कती दुनिया
दिन-दुपहर की!
बसंत बुढ़ाने लगा है और धूप तपने लगी है
मुंबई मेट्रो के मजदूर लेटे हुए हैं छाँह में
जीएसटी भवन के सामने वाले फुटपाथ पर
चमक रहे हैं सबके बदन पर
फ्लोरोसेंट ऑरेंज कलर के सेफ्टी जैकेट
और तकिया बन सुस्ता रहे हैं उनके संग
पीले-पीले उनके हेलमेट भी
सीमेंट-बालू-मिट्टी से सने काले-काले
उनके गम बूटों का भी लंच टाइम है यह
सुस्ता रहे हैं पाँवों संग वे भी!
अहा! इन मजदूरों के तलवे
कितने दूधिया दिख रहे हैं इस दुपहरी में
और उनके चेहरों पर भी कितना इत्मीनान है
इस अल्प-विराम से ही!
सबके हाथों में थिरक रहे हैं स्मार्टफोन
कुछ लोग बतिया रहे हैं घर-गाम
कुछ बिंदास खेल रहे लूडो मोबाइल पर ही
एक तो चुक्कू मुक्कू बैठकर देख रहा है
कोई वीडियो बहुत कौतुहल से!
उन सबके बोलने-बतियाने से जान पड़ रहा
सबके सब हैं यूपी, बिहार, बंगाल के ही।
एक दिन देखा एक मोबाइल वैन पर लिखा-
‘बाँधकाम कामगार मध्यान भोजन योजना’
पूछा ड्राइवर से- किसके लिए है ये मोफत भोजन?
बताया उसने बिंदास- इन लेबर लोगों के वास्ते!
जब से लॉकडाउन लगा ने,
तबसेइच सरकार इन लोगों के लिए
मोफत थाली का इंतजाम करेली हे!
रोज आते हो? और क्या देते हो थाली में?
हाँ साब, रोज आते हैं और ये देखो थाली!
दाल, रोटी, चावल, भाजी!
कम नहीं पड़ता लेबर लोगों को?
अरे नहीं साब! जास्ती हो जाता है!
खाना लौटा के ले जाना पड़ता है!
बचा खाना क्या करते हो?
झुग्गी वालों को बाँट देते हैं!
पण वे भी कई बार लेने से मना कर देते हैं!
कितने लोगों को खिलाते हो दिन भर में?
मेरी गाड़ी बीस हजार थाली का खाना लेकर
निकलती है रोज सुबे आठ बजे।
ऐसी कितनी गाड़ियाँ चलती हैं मुंबई में?
पक्का मालूम नई,
पण सौ-दो सौ तो चलती होएंगी साब!
जान-सुनकर तसल्ली हुई कि
सरकारें इतनी निठल्ली भी नहीं और
जनता भी अब उतनी बुड़बक नहीं
कि उनको उनका हक मालूम न हो!
अब तो हम शहराती लोगों से कहीं अधिक
मालूम है गाँव-जवार के लोगन को!
एक बड़े नामचीन कॉर्पोरेट के कुछेक स्टाफ
सड़क पर ही खेल रहे क्रिकेट मजे से
सामने लाइन से सुस्ताती सिटी फ्लो की बसें
दिख रहीं कुछ यों मानो
वे पार्किंग में नहीं, दर्शक दीर्घा में बैठी हों
ठीक दो बजे खेल बंद कि उन्हीं में से कोई
चिल्ला पड़ता- लंच ओवर!
इसी बांद्रा-कुर्ला कॉमप्लेक्स याने बीकेसी के
ठीक बीचोबीच बहती है मीठी नदी
जो बस नाम की मीठी है
और नाम की नदी भी
कालिंदी से भी काला है जिसका जल
इसी के वेटलैंड पर इस पार उस पार
उगा है कंक्रीट का यह विशाल जंगल!
चमकदार और शानदार इतना
कि इस पार तो इंडिया भी लगे है
उस पार तो न्यूयॉर्क से कम नहीं!
कतार में खड़ी हैं महंगी से महंगी गाड़ियाँ
और एक से एक, नये से नये मॉडल
उनके मालिकों और साहबों का तो पता नहीं
पर कुछ ड्राइवरों की चौकड़ी ताश खेल रही
कुछ आराम फरमा रहे अंदर बिंदास एसी में
कोई जीम रहा अपना टिफिन मर्सिडीज में बैठकर!
चलो, सुख-चैन से खाना तो खा लेते हैं ये
बेचारे बैंकर तो अपनी सीट पर बैठकर भी
सुख-चैन से नहीं खा पाते कि कपार पर
सवार रहते हैं पचहत्तर कस्टमर!
ओह, उन ड्राइवरों का कितना अलग है जीवन
जो अपने ट्रकों और टेंपो में लिखवा कर
दौड़ते फिरते हैं दिन-रात सड़कों पर-
“सीख ले बेटा ड्रायबरी
फूटे तेरे करम
खाना मिलेगा कभी-कभी
सोना अगले जनम।”
मीठी नदी के समानांतर चलती सड़क पर चलता
पहुँचा हूँ जियो वर्ल्ड ड्राइव के कोने तक
जिसे खुले हो गए बरस-दो बरस से ऊपर
अमूमन सब लगा चुके इसके चक्कर
पर अब तक नहीं गया मैं इसके अंदर
सिर्फ जाने के लिए भी क्या जाना जी
जब वहाँ खाने-खरीदने की असल औकात नहीं!
बस यहीं कोने में फुटपाथ पर खड़ा हूँ मैं
बाँस की झुरमुट का मद्धम संगीत सुनना
अच्छा लगता है यहाँ
यहीं कमउम्र पीपल की छाँह में लेटा है
एक डिलिवरी बॉय अपने बैग को तकिया बनाकर
ठीक बगल में सड़क पर सुस्ता रही है
एक लंबी-चौड़ी चमचमाती नीले रंग की जगुआर!
पाँचेक मिनट में लौट पड़ता हूँ
लौटते हुए एक बार फिर देखता हूँ
निश्चिंत सोते हुए उस डिलीवरी बॉय को
एक मन हुआ, एक तस्वीर खींच लूँ उसकी
फिर लगा, मैं उसकी दुनिया अगर
जरा भी बेहतर नहीं कर सकता तो फिर
उसकी दुनिया में दखल देने का
मुझे क्या हक है?
संपर्क: जे-2/406, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई-400063
मो. 9429608159. ईमेल : rahulrajesh2006@gmail.com
बहुत बहुत आभार, सबद।
तस्वीरें बहुत प्यारी लगायी है आपने।।
अच्छी भावप्रवण कविताएँ। अपने साथ एक अलग दुनिया में ले जाती हैं।