कविता

विशाखा मुलमुले की कविताएँ

चर्चित कवयित्री विशाखा मुलमुले की ये कविताएँ जीवन के मौलिक रसायन से निर्मित हैं। वे अपनी इन कविताओं में प्रकृति, विचार, संगीत परंपरा और स्मृति के अपूर्व संसार में अपने अद्भुत भाषा-कौशल के माध्यम से आवाजाही करती दिखती हैं। उनकी मराठी पृष्ठभूमि के कारण न केवल उनकी काव्यभाषा बल्कि उनके कहन को भी एक अनूठी काव्य-भंगिमा मिलती है। ‘मिश्किल’ जैसे सुंदर शब्द से हिन्दी को परिचित कराने के लिए तो उन्हें अलग से शुक्रिया कहा जाना चाहिए। भाषा और शिल्प के प्रति सजग रहते हुए भी विचार के सौन्दर्य को कैसे कविता में विन्यस्त किया जा सकता है, इसे समझने के लिए ‘सबद’ पर प्रस्तुत उनकी इन कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए – 

खिलना

गन्धराज के समीप से गुजरो

उसमें न मिलेगी गन्ध 

मधुमालती, चंपा , आम्र

किसी भी लता, गुल्म, वृक्ष में

न मिलेगी सुगन्ध 

 

पुष्प के खिलने पर 

खिलता है वृक्ष

बिखरती है संसार में उसके होने की गंध 

 

इसी तरह,

प्रेम व करुणा मनुजों में रचते

खिली हुई आत्मा की गन्ध-सुगन्ध

 

पुष्प का खिलना नहीं है मामूली कोई घटना

अरबों साल पुरानी इस धरती पर 

अस्तित्व है मनुज का कुछ लाख बरस

इतने बड़े जीवन में

गिन के देखो 

 

अब तक खिले हैं कितने पुष्प?

रंगत

जब एक तितली तुम्हारी आँखों में ठहरती है

तो तुम्हारी दृष्टि की कोमलता 

मन को छू जाती है 

वह तितली जब काँधे पर बैठती है 

तो बन जाती है भरोसे का रूपक

 

उड़ कर वही तितली 

जब तुम्हारी हथेली पर रंग बिखेरती है 

तो रचती है 

शिशिर में फाल्गुन का रोमांच 

जब तुम्हारे अधरों पर 

तितली-सी मिश्किल मुस्कान तिरती है 

तो मेरी नाभि के इर्दगिर्द 

मचलती है असंख्य तितलियाँ

 

सुनो वसंत

पतझड़ की असंगत ऋतु में भी

पीठ पर तितली का अस्तित्व बनाये रखना 

कि, एक तितली की फड़फड़ 

बदल सकती है ऋतुएँ भी ! 

 

 

*मिश्किल – शरारती

गूँज अनुगूँज 

लैंगिक समानता व जाति पर 

हम व्याख्यान सुनकर आ रहे थे

हम सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय से आ रहे थे

हम अनेक राज्यों से आये विचारकों को सुनकर आ रहे थे

हम विचारों की अनुगूँजों संग चले आ रहे थे

 

कि, हमारे ऑटो चालक ने 

ऑटो की गति को थोड़ा बढ़ाया और

दूसरे नवयुवक ऑटो चालक के कुछ समीप ले आया

उससे उसका हाल चाल पूछा

बहुत दिनों बाद मिले यह कहकर पूछा

 

कितना सुंदर था यह दृश्य

इसी दृश्य में हमने

गंगा-जमुनी तहज़ीब को मूर्तरूप में देखा

ध्रुवीकरण की राजनीति को 

बीच सड़क ध्वस्त होते देखा 

मनुष्य को मनुष्यता की परिभाषा में 

सरेआम फिट होते देखा 

 

जो तालियाँ हमने सभागार में बजायी थी

उनकी गूँज यहाँ अपने आप ही उठ आयी थी

अन्न हे पूर्ण ब्रह्म 

अपने घर में परोसते हुए भोजन

अक्सर पहुँच जाती हूँ बचपन के घर में 

जब देखा करती थी आई को 

आजोबा को भोजन परोसते

 

भोजन आरम्भ करने से पहले 

आजोबा बनाते थे जल से मंडल

फिर पक्षियों व जीवों के लिए

रखते उनका भाग

 

वरण-भात से आरम्भ हुआ भोजन 

होता था सम्पन्न दही-भात पर 

अर्थात ;

निर्गुण का निर्गुण में हो जाता विलय 

 

एक निवाला दूसरे से अलग 

कभी दाल में भीगा हुआ 

कभी सब्जी से भरा हुआ 

बीच-बीच में कढ़ी की फुरकी 

तो कभी चटनी का चटकारा

 

बाद में हुए वे उद्यमी 

पहले कपड़ा मिल में करते थे नौकरी 

तब दुर्घटना में  टोक कट गई थी अनामिका की 

कौर बनाते समय वही अंगुली जरा उठी रहती थी

देख जिसे लगता था जैसे

वह हो मोर की कलगी और

मोर अपनी चोंच से उठा रहा हो निवाला 

 

उतना ही लेते थे जितनी रहती भूख 

थाली में अन्न छोड़ने को नहीं होते थे कभी मजबूर 

नहीं निकालते थे मीन-मेख कभी भोजन में

नमक कम लगे तो 

थाली के बाईं ओर परोसे नमक को गुपचुप मिला लेते थे  

अंतिम कौर संग तृप्ति की

मुस्कान बिखर जाती थी उनके मुख पर 

उपरांत जिसके

आई को हर बार देते थे आशीर्वाद ;

‘अन्नपूर्णा सुखी भव!’

 

*आजोबा – दादाजी

 

*आई – माँ

कैवल्य

प्रथम तल पर दाना मिलेगा 

द्वितीय तल पर पानी 

पश्चात मिलूँगा मैं 

 

पहले तल में क्षुधा मिलेगी 

दूसरे तल में तृप्ति 

फिर मिलूँगा मैं

 

भक्ति मार्ग में चलायमान 

स्तुति के अलभ्य क्षणों में

संत एकनाथ की आत्मा अपने कंठ में धारण कर

गाते हैं अभंग पंडित भीमसेन जोशी 

‘काया ही पंढरी आत्मा हा विठ्ठल

नांदतो केवल पांडुरंग ….’

 

काया इक पुर एक नगर

जिसमें विराजमान परमात्मा

सातों तल और छहों विकारों को पार करो

तुम्हारी देह की नींव में प्रतीक्षारत

अचल, निर्विकार 

 

सम्मुख मिलूँगा मैं 

उत्तीर्ण / अनुत्तीर्ण

शान्ति की परीक्षा लेता है कोलाहल

प्रेम की घृणा

वात्सल्य की परीक्षा लेता है स्वयं शिशु 

कलिका की वायु

 

समय हर घड़ी तैनात है परीक्षक की भूमिका में

 

मैं हर परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाऊँ

बस,

मुझ अधीरमना की परीक्षा न ले धैर्य !

पुणे में रहने वाली विशाखा मुलमुले के काव्य संग्रह ‘पानी का पुल’ (बोधि प्रकाशन के दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि योजना के अंतर्गत चयनित)  और ‘अनकहा कहा’ (नोशन प्रेस) प्रकाशित हो चुके हैं। वे कविताओं के अनुवाद कार्य में भी संलग्न रहती हैं, उनका एक अनूदित सँग्रह ‘अजूनही लाल आहे पूर्व’ (मराठी) भी प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ कविताएँ अंग्रेजी, मराठी , बंगाली , पंजाबी व कन्नड़ भाषा में अनूदित भी हुई हैं। उन्हें नान्दी सेवा न्यास (वाराणसी) द्वारा युवा सृजन शिखर पुरस्कार (2023), छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘पुनर्नवा पुरस्कार’ (2023) और मध्यप्रदेश प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन का ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ (2023) प्राप्त हो चुके हैं। उनसे vishakhamulmuley@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

2 Comments

  1. गूँज-अनुगूँज कविता के लिए विशेष रूप से बधाई। सबद बेहतरीन काम कर रही है। शुभकामनाएँ।

  2. विशाखा की की सभी कविताएं अच्छी हैं जो पाठकों को पढ़ने के लिए विवश करती हैं। उनका अंदाज़ और उनका कहन दोनों आकर्षित करता है।

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