कविता

शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ

शिरीष कुमार मौर्य हिन्दी के उन कवियों में से हैं जो इस दुनिया के कोलाहल और चमक-दमक से दूर चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। उन्होंने अपनी कविता-यात्रा में निरंतर एक अनूठी परिपक्वता अर्जित की है, यह एक अलहदा पक्कापन है, जिसने मितकथन के काव्यभाषिक वैभव के साथ कथ्य के नवोन्मेष से अपना रूप प्राप्त किया है। ‘पुराकथाएँ शृंखला’ की उनकी ये कविताएँ बहुत धीमे और मंद स्वर में प्रकृति और परिवेश के साथ साक्षात्कार करते हुए परंपरा का संसार बरास्ते स्मृति हमारे सामने उपस्थित करती हैं। वे ठीक ही लिखते हैं कि हम सब हृदय को झिंझोड़ती विकलता के बीच धैर्य का अभिनय कर रहे हैं। वे 2017 से निरन्‍तर कविता-शृंखलाओं पर काम कर रहे हैं, जिसके संग्रह क्रमश: इस प्रकार हैं – ‘सांसों के प्राचीन ग्रामोफोन सरीखे इस बाजे पर’ – ज्ञानपीठ प्रकाशन 2017, ‘रितुरैण’ – राधाकृष्‍ण प्रकाशन 2020, ‘आत्‍मकथा’ – रश्मि प्रकाशन 2022, ‘चर्यापद’ – राधाकृष्‍ण प्रकाशन 2024, ‘राग-पूरबी’ – प्रकाशनाधीन और पुराकथाएं नाम से यह छठवीं शृंखला है, जिसकी तेरह अप्रकाशित कविताएँ ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं :

प्राक्कथन

बहुत दूर हूँ इन दिनों। कभी दूर रहने का मन भी होता है। एक विराग-सा, जिसका राग अपनी उठान से गुज़र चुका हो। दुनिया ख़ूब खुली और साफ़ दिख रही है। लोग जो मेरी शिनाख़्त कर रहे थे, अब थक चुके। मैं अपने शिशिर में उसके आने वाले शीत और हवाओं के बीच खड़ा हूँ। कुछ अधिक गहरी साँस, अधिक विवेक, अधिक धैर्य के साथ मैं जैसे सुदूर किसी दृश्य को देख रहा हूँ और उसमें वास भी कर रहा हूँ, तो यह मेरी नहीं, उस दृश्य की द्वाभा है।
मेरे आसपास ख़ूब हलचल है। धान जा चुके, गेंहूँ के अंकुर फूटे हैं। एक दिन उनकी नुकीली बालियों में कभी-कभी मेरी आवाज़ भी सुनाई देगी। चहुंओर ओस है। ओस है कह देना अक्सर पूरे प्रसंग को कह देना है मेरे पहाड़ पर।
इस मास में स्मृतियों का द्वीप है। एक वृद्ध स्त्री की छाया है। विकल एक पुकार है, जिसे अब सदा मेरे भीतर रहना है – गूँजना है मेरे ही जीवन के एक ख़ाली उड्यार में…
                                                                                                                                                                                                       (29 नवम्‍बर, रामनगर, शिवालिक की तलहटी)

पुराकथाएँ - १ 

वो

इस अछोर धरती पर भटकती

किसी इच्छा जैसी

अधूरी और अपराजित

 

मैं हारा थका

कभी-कभी गुर्राता अपने आसपास पर

मेरा मिट्टी का-सा रंग

और और गाढ़ा हो जाता

 

पुराकथाओं में

जो हिचकियाँ लेता यथार्थ था

बिसराया हुआ

साधारण जन थे जिसमें

और उनकी हत्याएँ थीं

और निष्फल प्रयत्न न्याय के

वही मेरा वर्तमान है

इन दिनों

वैसी ही एक गंध से भरा

 

जैसी बाघ के मुँह से आती है

दहाड़ने पर

 

अनुभव से जानता हूँ

चौतरफा घिरा आदमी भी

अगर वाकई में आदमी है

तो

अंततः बाघ हो जाता है

 

उस बाघ के मन में

प्रेम की विकल एक स्मृति रहती है

अपनी ही देह पर

चमकते प्रकाश की झिलमिल जैसी

 

उसे संसार का श्रेष्ठतम

छलावरण कहते हैं

लोग

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पुराकथाएँ - २  

बहुत बड़े एक रूपक में

कई रोज़ से

मैं भूखा हूँ

 

मुझे पहले भोजन

फिर

नींद की ज़रूरत है

मेरी आँखें

अंधेरे में जलती हैं

 

मेरे हृदय में

विकलता उस तेंदुए की तरह

रहती है

जो रातों को गाँव की

पगडंडियों पर

घूमता था

उसे किसी ने नहीं देखा था

बस कभी कभी

उसकी आवाज़ आती थी

 

मैं विकल

सोचता हूँ मेरे पास है प्रेम सकल

सब लोग सदाशयी मेरे प्रति

 

जीवन लेकिन बेध बेध देता है

उस वन्यता को

प्रकृति से जिसे मैंने कमाया है

 

जिसमें बसकर

मैंने अपना अस्तित्व और आकार पाया

मुझे इस धरणी पर

मनुष्यवत रहना आया है

 

भीतर एक वन

मुझे विकल रख सकता है उम्र भर

एक शहर

छीन सकता है मेरी मनुष्यता

 

जो कभी-कभी

नगरों-महानगरों तक चले आते हैं तेंदुए

लोगों को देख भागते

डर कर झपटते समाचार बनते हैं

ये मेरे जैसे मनुष्यों की

निष्फल विकलताएँ ही हैं

 

और उन नगरों-महानगरों की

भविष्य तक झपटती हुई पुराकथाएँ

जिनमें

सदा ही सर्वथा एक नए प्रसंग की तरह

मैं

रहता हूँ 

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पुराकथाएँ - ३   

बार-बार दोहरायी गई एक कथा के बीच से

उसने कहा बात करना

 

बात करना

पर सुन सकने का सामर्थ्य हो तभी बात करना

इस तरह उसने कहा बात मत करना

 

सुनता ही रहा

अब तक ज़माने में बहुत शोर था

बहुत शोर रिश्तों में वे रास्तों की तरह हो चले थे

उन्हें घर की तरह होना था

 

मुझमें सामर्थ्य न होता तो दुनिया में निबाह भी

मुश्किल था

 

मैं सुन सकता था उसे भी जो नहीं कहा गया

या जो कहा जाने वाला था

 

इस पूरे शोर और सुनने के प्रसंग में

मैं भी कुछ बोलना चाहता था

अपना सब सामर्थ्य समेट कर अब मैं चुप रहता हूँ

 

किसी पुरानी कथा में शायद मेरे बोलने के

कुछ उल्लेख होंगे

 

या फिर कुछ अवशेष उस कथा के

मेरे इस

थोड़ा-सा बोलने में

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पुराकथाएँ - ४ 

दुर्लभ हुआ जाता

प्रेम

मेरे लिए संसार में

 

और कठिनतर कुछ अभद्रताएँ

मेरी ही

 

इस सबके बीच

सब सोचते रहे कि मैं जंगल के क़रीब

या तो जंगल में रहता हूँ

 

किसी ने नहीं देखा

मैं ख़ुद जंगल था बहुत अंधेरे कोने-अंतरे थे मेरे

पर सदा ही रहे जीवन से भरे

 

मृत्यु

जिसे बार-बार ढाँप लेती है

ऐसा ही साधारण जीवन

एक दिन

अपनी इसी नश्वरता में

अमर हो रहता है

 

मेरे बाद भी यह रहेगा

मेरी तरह

या किसी पुरातन कथा की तरह

या शिवालिक के उन बाघों की तरह

एक दूसरे के हाथों ही जो मरते हैं

और नये हो जाते हैं

 

उसमें

कुछ कठिन उल्लेख होंगे

मेरे

और कुछ दुर्लभ प्यार

 

प्राचीन

किसी जंगल का

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पुराकथाएँ - ५  

पानी गिरा

अगास से बारिश कहलाया

फल गिरा पेड़ से

चींटियों की कतार लगी उस पर

 

पतंग गिरी कटकर

दुबारा

किसी बच्चे के हाथों तक पहुँची

 

धूल गिरी आँखों में 

मेरे पहाड़ से ही टूटकर गिरा एक

पत्थर

मेरे पाँव पर

 

मैं तरह-तरह से

घायल और मज़बूत हुआ

 

मेरे आसपास कुछ पेड़ गिरे

असमय

सभ्यता की भेंट चढ़े

कुछ लोग गिरे थककर

मैं उनमें से सबको उठा भी न सका

 

अब तक मैं कैसे भी न गिरा

पर गिरा

अपने ही भीतर

किसी तल तक पहुँचने की

अभी मुझे

कोई आवाज़ नहीं आयी है

 

लगभग अधूरी थी एक  पुराकथा

समकालीन इस समय में 

इस तरह वह पूरी हो पायी है

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पुराकथाएँ - ६  

ख़रगोश पृथ्वी के अंधेरे में

घास कुतरते थे

आकाश के उजाले में

फलों की ओर उड़ते थे तोते

 

तब संसार इतना ख़ूबसूरत था

 

अब

कई-कई अभेद्य परतों में है

अंधेरा

 

उजाले का है बस

एक चेहरा

 

किसी पुरानी कथा में

जैसे कि

लोककथा में

       उसे देखते हम हैं

 

जीवन में उसके होने की

आशा

उसकी स्मृति बन गई थी

 

इन दिनों कटे हुए गेंहू के खेतों पर

उतरते तोते

उसी का नाम लेते हैं

 

आशा जैसी

एक स्मृति के भीतर रहते हैं

हज़ारों साल पुराने

ख़रगोश

 

उनकी

लाल लाल आँखों में

बहुत पुराना

एक सवेरा है

 

और

पृथ्वी जैसा विपुल एक ख़याल

बिलकुल नया

 

बदलता हुआ

समूचे आकाश को 

आशा में

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पुराकथाएँ - ७  

अब पुराकथाओं में है

जो उम्र

उसे समकालीन समझ लेना

अपराध होगा

 

कुछ पुरानी एक देह में

रहती है

मेरी आत्मा

 

एक दिन

उसकी विकलता

किसी आख़िरी पुकार की

तरह

बुझ जाएगी

 

मैं अधिक संयत

गम्भीर

और पुराकालीन लगूँगा

समकालीन

इस संसार में

 

एक हथेली की स्मृति के नीचे

मेरी नींद

तब अटूट होगी

 

एक स्वप्न

सदा उस उजाले के भीतर

रहेगा

जिसके सहारे

मैंने कभी

अपनी राह पायी थी

 

उजालों की

कोई उम्र नहीं होती

पर उनमें

अपना कलुष धोते

अंधेरों की होती है

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पुराकथाएँ - ८   

अभेद्य कुहरे में भी उड़ते हैं

भोर के पक्षी

अदृश्य को दृश्य बनाते हुए

 

एक भारी आवाज़

ऋषभ की बढ़त से भरी

इस बेला में

आकाश की आवाज़ है

 

ऐसे भी भोर होती है

यही राग भैरव

किसी पुराकथा सरीखा

जीवन में कितना कुछ देखा है मैंने

इसी की बदौलत

 

तिस पर उलटबांसी सरीखी

कुछ उम्मीदें

मेरे मन में

उड़ती मंडराती हैं 

 

मैं पाता हूँ

यौवन नहीं अपना बचपन कहा है

उसने

मुझसे

हमेशा मेरे साथ वो तीस पैंतीस बरस

पीछे चली जाती है

 

और तीस पैंतीस बरस बाद

मेरी आत्मा में एक दृश्य अदृश्य हुआ जाता है

 

ज्यों बढ़े हुए धैवत के बाद

बार-बार पंचम लगता है प्रिय इस राग में

 

पर

याद मुझे हर बार धैवत ही आता है

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पुराकथाएँ - ९    

अब मुझे नींद आ जाए

वर्षों का जगा हूँ

समय में चला हूँ लगातार

 

मैं भी चाहता हूँ

कि सो जाऊँ किसी पुराकथा की ओट में

 

बहुत पुराना

एक जंगल भी साथ हो

अपने सूँसाट में

मेरी साँसों की

विकल आवाज़ समाए

 

इस तरह शायद

जंणदादेवी की ढलान पर मुझे

नींद आ जाए

 

मेरी देह के नीचे

नयी घास के कोमल तिनके हों

आते असोज में

कोई काटे कहीं और उन्हें

बिना

अपनी उंगली काटे

 

मैं सुदूर बचपन में सो जाऊँ

तो बुढ़ापे में मुझे झकझोरता जगाए

एक हाथ

किसी और समय का

 

सो जाऊँ

और लौट कर न आऊँ

 

तो समझ जाना

मैं नींद में नहीं अपने जीवन में हूँ

 

इन दिनों 

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पुराकथाएँ - १०    

मैंने धैर्य का अभिनय किया

जबकि विकलता

मेरे हृदय को झिंझोड़ रही थी

 

मैंने विश्राम में होने का अभिनय किया

और एक पाँव पर खड़ा मेरा आत्म

इस अभिनय में शामिल रहा

 

मैंने शांति का सुकून का अभिनय किया

बेचैनी मुझे जगाती रही हर नींद से

 

मैंने अपने वजूद में एक मनुष्य का

अभिनय किया

मेरे भीतर एक पशु मुझे दौड़ाते रहा वनों में

 

मैंने बस्ती में रहने का अभिनय किया

और दूब की महीन पत्तियों पर ओस की तरह

ठिठकी रही मेरी सुबह

उसने कुछ समय बाद दोपहर का अभिनय किया

 

मैं जैसा कि बार-बार कहता हूँ

दुनिया में नहीं एक क़िस्से में रहता हूँ

उसमें मेरा अभिनय करता है

एक कवि

एक कविता उसे संवाद की तरह

याद रखनी पड़ती है

 

मैं देखता हूँ सभी कुछ

सामने बैठकर

और मेरे चश्मे पर

भाप की तरह जमा हो जाती हैं

मेरी साँसें

 

मुझे लगता है इस बार

चश्मा नहीं

मेरी आँखें पोंछे जाने की

ज़रूरत है

 

हैरत नहीं

कि पुराकथाओं में दर्ज़ हैं

सिर्फ़ आँखें पोंछ देने के प्रसंग

 

आँखों पर चश्मा बहुत नया एक

प्रसंग है

मनुष्यता का

मेरी बनैली आत्मा अभी कम जानती है

इसे

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पुराकथाएँ - ११     

जगहें

कभी शोर से भर जातीं

कभी हो जातीं वीरान

 

मैं उनमें चलता रहा

अकेला

 

कभी

किसी ने कहा भी कि मैं साथ हूँ

तुम्हारे

तो ये आवाज़ आती

किसी दूसरी जगह से

 

मेरे होने की जगहों पर

मैं किसी अदृश्य की तरह चलता

 

किसी मौन की तरह

मेरे होने का एक शोर उठता

 

जानता हूँ

जगहें बदल जातीं है बहुत जल्दी

समय में

 

समय नहीं बदलता कभी

किसी जगह में

 

ये जो इतना बोलता हूँ मैं

इन दिनों

कोई जगह नहीं खोजता

बस अपना

समय पूछता हूँ

 

मनुष्य के जीवन की

पुरातन इस कथा में

थोड़ी गरिमा

और थोड़ा प्रेम

ये बस 

समय की ही तो बात है 

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पुराकथाएँ - १२      

1987 में रहता हूँ

88

89

90

91

92 में रुक जाता हूँ 93 पार करता हूँ

जल्दी जल्दी

 

94 सड़कों पर उतरने

और पुलिस की लाठियां

खाने का साल

मेरे माथे पर निशान मुलायम सिंह यादव की

देन है

 

मुजफ्फरनगर कांड है

बुआ सिंह है

गन्ने खेतों में भागती औरतें

न्याय तक न पा सकीं

खटीमा में गोली से मरे लोग

राजनीति करने के

काम आते हैं

मैं 1994 में रुका रहता हूँ

मुलायम सिंह को 2024 नववर्ष की बधाई कहता हूँ

 

वे अब जीवित नहीं हैं

जीवित है एक पुराकथा

 

मेरी धरती में लहू बनकर बिखरी हुई

मस्तिष्क में थक्का बनकर जमी हुई

 

बिल्कुल नए साल में

मैं बधाई कहता हूँ

उससे

 

‘जी रयां’ कहती है वह मुझसे

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पुराकथाएँ - १३ 

उसने

मुझे अपने सपने बताए

यथार्थ नहीं

 

पर मैंने सुन लिया

यथार्थ भी

किसी पराध्वनि की तरह

 

मेरी स्मृति

हाथी के कान जैसी थी

संवेदनशील

और विशाल

 

मेरा सामर्थ्य

हाथी की सूंड़ जैसा

बलवान

 

घास के मैदान में

पड़ी हैं

उस हाथी की अस्थियां

जिसे

अब भी कुछ जीव ठहर कर सूंघते हैं

 

मेरे समकाल  की नाक से

ख़ून बहता है

मस्तिष्क के आघात से उसे बचाता हुआ

 

मैं अब भी

दिखता हूं सभी को

आता-जाता हुआ

 

यह पुराकथा है

दैवीय प्रसंगों से भरे इस संसार में

किसी के

निपट मनुष्य हो जाने की

 

मिथकों से निकल कर

 

यथार्थ में आने की

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शिरीष कुमार मौर्य कुमाऊँ विश्वविद्यालय के डी एस बी परिसर, नैनीताल के हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर हैं, वे महादेवी वर्मा सृजनपीठ (कुमाऊँ विश्वविद्यालय, रामगढ़) के निदेशक भी हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं, ‘पहला क़दम’, ‘शब्दों के झुरमुट’, ‘पृथ्वी पर एक जगह’, ‘जैसे कोई सुनता हो मुझे’, ‘दन्तकथा और अन्य कविताएँ’, ‘खाँटी कठिन कठोर अति’, ‘ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम’, ‘साँसों के प्राचीन ग्रामोफ़ोन सरीखे इस बाजे पर’, ‘मुश्किल दिन की बात’, ‘सबसे मुश्किल वक़्तों के निशाँ’ (स्त्री-संसार की कविताओं का संचयन), ‘ऐसी ही किसी जगह लाता है प्रेम’ (पहाड़ सम्बन्धी कविताओं का संचयन, सं. : हरीशचन्द्र पांडे) (कविता); ‘धनुष पर चिड़िया’ (चन्द्रकान्त देवताले की कविताओं के स्त्री-संसार का संचयन), ‘शीर्षक कहानियाँ’ (सम्पादन); ‘लिखत-पढ़त’, ‘शानी का संसार’, ‘कई उम्रों की कविता’ (आलोचना); ‘धरती जानती है’ (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद की किताब सुपरिचित अनुवादक अशोक पांडे के साथ), ‘कू-सेंग की कविताएँ’ (अनुवाद)। उन्हें प्रथम ‘अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार’, ‘लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान’, ‘वागीश्वरी सम्मान’, ‘गिर्दा स्मृति जनगीत सम्मान’ से सम्मानित किया जा चुका है। उनसे shirish.mourya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

One Comment

  1. बहुत ठहरकर दुबारा पढ़ने को आमंत्रित करती कविताएँ, जिनमें जीवन का मद्धम राग भी है और अंदर धधकती आग भी है। प्राक्कथन भी सुंदर गद्य का आस्वाद दे गया।।

    सबद का आभार और
    शिरीष जी को जन्मदिन की बहुत बधाई।।

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