कमल किशोर गोयनका मुंशी प्रेमचन्द के जीवन, विचार तथा साहित्य के शोध पर लगभग 52 वर्षों से निरंतर कार्यरत हैं, प्रेमचन्द पर आलोचकों की पुरानी मान्यताओं को खण्डित करके एवं नई मान्यताओं एवं निष्कर्षो का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने शोध एवं अध्ययन की नई दिशाओं का उद्घाटन किया है। प्रेमचन्द पर उनके लगभग 300 शोध–आलेख तथा 35 पुस्तकें प्रकाशित हैं और 22 खण्डों में प्रेमचन्द की रचनावली का सम्पादन भी उन्होंने किया है। हिन्दी समाज कई बार उनके विचारों और निष्कर्षों से असहमत रहता है, फिर भी वे अपने कहे और लिखे से हलचल पैदा करते रहते हैं। हाल के दिनों में प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘कफन’ पर केंद्रित युवा कवि-लेखक विहाग वैभव द्वारा ‘आलोचना’ में लिखित लेख में प्रेमचन्द पर अनेक आरोप लगाये गये। प्रेमचंद और उनकी इस कहानी पर ऐसे सवाल पहले भी उठाए जाते रहे हैं। कमल किशोर गोयनका से मो. हारून रशीद खान ने ‘कफन’ कहानी और उससे जुड़े आरोपों पर विशेष बातचीत की, इस साक्षात्कार का सम्पादित अंश ‘सबद’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।
विहाग वैभव का आरोप है कि प्रेमचन्द कितने दलितों को जानते थे, उनकी कहानी ‘कफन’ दलितों को चिढ़ाने के लिए लिखी गयी है। ‘कफन’ कहानी पर एक जातिविशेष के नकारात्मक चित्रण के आरोप पहले भी लगते रहे हैं, इसपर आपकी क्या राय है?
प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ को लेकर हमारे दलित लेखकों ने कई प्रकार की आपत्तियाँ की हैं। कुछ तो उत्तर के लायक ही नहीं हैं, क्योंकि वे साहित्यिक नहीं राजनीतिक अधिक हैं। आपने जिन आरोपों का उल्लेख किया है कि ‘कफ़न’ कहानी जैसे एक जाति को मिटाने के लिए लिखी गई है, यह भी हास्यास्पद आरोप हैं। कोई लेखक एक कहानी से एक जाति को कैसे मिटा सकता है? साहित्य मिटाने के लिए नहीं, निर्माण के लिए होता है और प्रेमचंद भी उच्चकोटि का भारतीय समाज बनाना चाहते थे। विहाग वैभव को ‘गो-दान’ का सिलिया वाला प्रसंग देखना चाहिए, जिसमें चमार ब्राह्मण के मुँह में हड्डी डालकर कहता है कि तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते तो हम तुम्हें चमार बनाते हैं। यह दलित वर्ग के मान-सम्मान की अद्भुत घटना है जो प्रेमचंद ही संभव कर सकते थे।
क्या बाप और बेटे दोनों क्रूर थे? बुधिया प्रसव पीड़ा से तड़पकर मर गई, इन्हें दया नहीं आयी। क्यों?
कफ़न के पात्र घीसू तथा माधव क्रूर थे, उन्होंने बुधिया को मरने दिया तथा कफ़न के पैसों से शराब पी। आदमी की इससे भी बड़ी क्रूरताएँ इतिहास में भरी पड़ी हैं। इस कहानी में दोनों पात्र भूखे हैं। वे आलू किस तरह खाते हैं, वह उनकी प्रबल भूख का प्रमाण है, भूख उन्हें अमानवीय बनाती है। हम आज भी ऐसे दृश्य देखते रहते हैं। मनुष्य के साथ ऐसी क्रूर अमानवीयता जुड़ी हुई है। और वैसे भी, मनुष्य के लिए जीवन की रक्षा के लिए कोई भी कर्म क्रूर नहीं है। हमारे यहाँ इसे आपदधर्म कहा गया है। वैसे भी कहानी की रचना के लिए बुधिया का मरना जरूरी था। कहानी बनती ही बुधिया की मौत से है।
मुंशी जी के अनुसार ‘कफन’ कहानी के जमींदार इतने दयालु थे कि कफन के लिए दो रूपये निकालकर फेंक दिये। जो वैसे बेगारी न करने पर घीसू और माधव को हमेशा पीटते रहे। इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
बुधिया की मौत के बाद घीसू तथा माधव उसका अंतिम संस्कार करने के लिए गाँव से चंदा एकत्र करते हैं। उनके पास तो कुछ भी नहीं है। उन्हें कफ़न तथा लकड़ी का इंतजाम करना है। वे जमींदार के पास जाते हैं, बुधिया की मौत की दर्दनाक कहानी गढ़ते हैं। जमींदार उन्हें हरामखोर तथा बदमाश मानते हुए भी जी में कुढ़ते हुए दो रुपए फेंक देते हैं। लेखक जमींदार को दयालु कहता है, पर वह गाँव के सामाजिक जीवन की मजबूरी से दो रुपए देता है। गाँव में किसी के यहाँ लाश पड़ी रहे, घर के लोगों में अंतिम संस्कार करने की सामर्थ्य न हो तो सारा गांव मिलकर इंतजाम करता है। जमींदार के देने के बाद गांव के अन्य लोग भी दो-दो चार-चार आने देते हैं और एक घंटे में पांच रुपए इकट्ठे हो जाते हैं और दोपहर में घीसू-माधव कफ़न लेने बाज़ार जाते हैं। घीसू को गाँव के लोगों की इस सामूहिक मदद का लंबा अनुभव है। घीसू माधव से कहता है, “सब कुछ आ जाएगा भगवान दे तो। जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे, वही कल बुलाकर रुपए देंगे। मेरे नौ लड़के हुए। घर में कभी कुछ ना था, मगर भगवान ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।” घीसू जानता है कि गाँव के वही लोग कफ़न के लिए दुबारा पैसे देंगे, पर हमें नहीं देंगे, लेकिन बुधिया का अंतिम संस्कार होगा। घीसू के जीवनानुभवों का यही सत्य है।
आज इक्कीसवीं सदी में भी मंदिर में प्रवेश करने पर, पानी पी लेने पर हरिजन की हत्या कर दी जाती है। हरिजनों के साथ ऐसा व्यवहार क्यो?
आपने इक्कीसवीं सदी में मंदिर प्रवेश पर दलितों (आपके अनुसार हरिजनों) पर होने वाले अत्याचारों का उल्लेख किया है। यह सत्य है, लेकिन समाज बदल रहा है और यह प्रवृत्ति समय के साथ कम होती जायेगी और हमारे कानून भी इसमें मदद कर रहे हैं।
उस समय गाँव में चखने की दुकान पर चटनी, अचार और कलेजियाँ कहाँ मिलती थीं? जैसा कि मुंशी जी ने अपनी कहानी में दर्शाया है। आपने बहुत काम किया है। आपकी राय जानना चाहता हूँ।
प्रेमचंद का शराबखाने का चित्रण गलत नहीं है। गाँव में तथा छोटे-छोटे शहरों में देशी शराब की दुकान के पास ही उसके साथ खाने की वस्तुओं की दुकान भी होती है। शराब अकेले नहीं पी जाती। उसके साथ खाना-पीना साथ चलता है। प्रेमचंद ने कहानी में लिखा है, “आधी बोतल से ज्यादा उड़ गई। घीसू ने दो सेर पूड़ियाँ मंगाईं। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दुकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारा सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया।” यह स्वाभाविक विवरण है। प्रेमचंद कायस्थ थे, मित्रों के साथ कभी शराब पीते थे। अतः शराब तथा शराबखाने के संसार से परिचित थे।
अभी हाल ही में आपकी पुस्तक ‘कफन’ कहानी पर आयी है। उस पुस्तक की पृष्ठभूमि क्या है।
यह ठीक है कि अभी कफ़न पर मेरी किताब परिकल्पना प्रकाशन दिल्ली से आई है। असल में मैं कफ़न पर एक बड़ी किताब लिखना चाहता था और मैंने इसके लिए कफ़न के मूल्यांकन का इतिहास खोजा। सारी सामग्री एक फाइल में रखी रही। अभी कुछ वर्ष पहले मैंने कफ़न पर लेख लिखा- ‘कफ़न मौत की नहीं जीवन की कहानी है।’ कहानी का पाठ ही अपने प्रतिपादित को स्पष्ट करता है। अधिकांश आलोचकों ने कफ़न कहानी को संवेदना शून्य बताकर व्याख्या की है, लेकिन कहानी में अनेक स्थलों पर संवेदना के प्रसंग हैं। बुधिया के मरने पर गाँव की औरतें संवेदना प्रकट करती हैं, माधव बुधिया को याद करके रोता है और माधव शराबखाने में अपने बचे हुए खाने को एक भूखे भिखारी को दे देता है और प्रेमचंद लिखते हैं कि उसने ‘देने’ के गौरव, आनंद तथा उल्लास का पहली बार अनुभव किया। लेखक ने इन जैसे पात्रों में भी मनुष्यता की एक किरण उत्पन्न कर दी। दुर्भाग्यवश हमारे आलोचक माधव की इस पहली सुखद अनुभूति को नहीं देखते। कफ़न कहानी की आत्मा की तलाश उसके पाठ से ही हो सकती है।
कोई लेखक एक कहानी से एक जाति को कैसे मिटा सकता है? साहित्य मिटाने के लिए नहीं, निर्माण के लिए होता है और प्रेमचंद भी उच्चकोटि का भारतीय समाज बनाना चाहते थे।
मैं जयशंकर प्रसाद पर शोध करना चाहता था, लेकिन उनके आदेश पर मुझे प्रेमचंद को अपनाना पड़ा। यह नियति का ही खेल था और प्रेमचंद के शोधकर्म के बाद तो मैं प्रेमचंद का ही होता चला गया।
कभी रंगभूमि को जलाया जाना, कभी ‘कफन’ कहानी के माध्यम से मुंशी प्रेमचन्द पर निशाना साधना। ऐसे लोगों का उद्देश्य क्या है?
हारून जी, प्रेमचंद के जीवनकाल में उन पर कुछ लेखकों ने मिथ्या आरोपों से बदनाम करने की कोशिश की थी, लेकिन वे प्रेमचंद का रास्ता रोक नहीं पाये। प्रेमचंद बहुत बड़े लेखक हैं और उनके सामने ये सब धराशायी हो गये। इधर ‘रंगभूमि’ तथा ‘कफ़न’ को लेकर अनेक प्रकार के आरोप सामने आये हैं। वर्ष 2004 में ‘रंगभूमि’ जलाई गई। उस समय मुरलीमनोहर जोशी केंद्रीय शिक्षामंत्री थे। उन्होंने मुझे एन सी ई आर टी के लिए ‘निर्मला’ तथा ‘ज्यों मेंहदी के रंग’ उपन्यासों को हटाकर एक नये उपन्यास को पाठ्यक्रम में लगाने का काम सौंपा। एक कमेटी बनी और मैं उसका अध्यक्ष था। हमने प्रेमचंद के ‘रंगभूमि’ संक्षिप्त संस्करण का प्रस्ताव किया और इसका संपादन किया तथा पहले ही चमार शब्द हटा दिया। इस पर दलित लेखकों की संस्था ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ ने मुकदमा दायर किया और चमार वाले ‘रंगभूमि’ को सार्वजनिक रूप से जलाया। असल में, दलित लेखकों ने ‘रंगभूमि’ का पुराना संस्करण देखकर यह आंदोलन शुरू किया था। उन्होंने हमारे द्वारा संपादित ‘रंगभूमि’ का संस्करण देखा ही नहीं था। उनके नोटिस का उत्तर दिया गया और उसके बाद वे शांत हो गये। इसी प्रकार कफ़न कहानी पर भी प्रेमचंद की आलोचना की जाती है। यह सब राजनीति का ही हिस्सा है। यह समय के साथ खुद ही खत्म हो जायेगा।
क्या प्रेमचन्द का साहित्य एक वर्ग विशेष के खिलाफ है?
प्रेमचंद का साहित्य किसी वर्ग विशेष के खिलाफ नहीं है। जो लोग यह मानते हैं, वे प्रेमचंद के साथ अन्याय करते हैं। यदि ये लोग उनके साहित्य को तटस्थता से पढ़ें तथा समझें तो उनका यह भ्रम टूट जायेगा। प्रेमचंद मनुष्यता के शत्रुओं के विरोधी हैं, चाहे वह किसी वर्ग का हो। प्रेमचंद वर्ग के नहीं मनुष्य के शोषण, दमन तथा अत्याचारों के आलोचक हैं और इसमें जाति, धर्म तथा क्षेत्र का कोई भेद नहीं है। हमारे प्रगतिशील लेखकों ने उन्हें अपने वर्ग का लेखक बना दिया, परंतु प्रेमचंद की व्यापक संवेदना उन्हें एक वर्ग का नहीं भारतीय समाज का लेखक बनाती है। उनके साहित्य में सैकड़ों-हजारों (मुख्य, गौण तथा नगण्य) पात्र हैं। हर वर्ग उसमें अपने पात्र तलाश लेता है, लेकिन इस तरह वे एक वर्ग तक सीमित नहीं किये जा सकते।
डॉ. नामवर सिंह ने एकबार कहा था कि गोयनका जी बनिया की दुकान चला रहे हैं। आप इस विषय में क्या कहना चाहते हैं?
आपने नामवर सिंह के कथन का उल्लेख किया कि गोयनका बनिये की दुकान चला रहे हैं। नामवर सिंह की इस प्रवृत्ति पर मैंने एक लेख लिखा था– ‘नामवर सिंह का आलोचना विवेक’, यह ‘जनसत्ता’ में छपा था। नामवर सिंह एक पुस्तक मेले में प्रदीप जैन की प्रेमचंद पर पुस्तक का लोकार्पण कर रहे थे, पर वे उसपर नहीं मुझ पर बोलते रहे और ‘जनसत्ता’ में उसकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार नामवर सिंह ने कहा कि कमल किशोर गोयनका मारवाड़ी सेठ है, वह लिखना–पढ़ना क्या जाने, वह प्रेमचंद को हिंदू बना रहा है तथा उनकी दुकान चला रहा है और हम गोयनका को चूर–चूरकर देंगे। मैंने इसका उत्तर ‘नामवर सिंह का आलोचना विवेक’ लेख में दिया और लिखा कि साहित्य को धर्म, जाति में न बांटें। नामवर सिंह ठाकुर हैं और प्रेमचंद ने अपने साहित्य में ठाकुरों का जैसा चरित्र दिखाया है, उनमें वे कौन–से ठाकुर हैं? नामवर सिंह इसके छपने के बाद मुझसे माफ़ी मांग रहे थे कि उनसे गलती हुई थी। असल में प्रेमचंद पर मेरे शोध–लेखों ने प्रगतिशीलों की प्रेमचंद संबंधी मान्यताओं को ध्वस्त कर दिया और इससे प्रगतिशील लेखकों का समूह मुझ पर टूट पड़ा। यहां तक कि मुझे देख लेने की धमकी दी गई, लेकिन मेरे नये तथ्यों तथा नई अवधारणाओं का उनके पास कोई उत्तर नहीं था। नामवर सिंह ने माफी मांगकर जैसे प्रगतिशील गुट की पराजय स्वीकार कर ली। इनकी इसी सोच के कारण सारे विश्व से कम्युनिस्ट खत्म हो रहे हैं।
आपके सम्पादन में अभी-अभी मुंशी प्रेमचन्द की रचनावली प्रकाशित हुई है। रचनावली का सम्पादन करते समय आपके अनुभव कैसे रहे।
अभी ही ‘प्रेमचंद साहित्य रचनावली’, 22 खंडों में नयी किताब प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई है। मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है तथा मुझे संतोष है कि यह काम हो गया। इस रचनावली का यह वैशिष्ट्य है कि इसमें प्रथम संस्करणों में प्रकाशित साहित्य-पाठ को ही दिया गया है। प्रेमचंद के उपन्यासों आदि का पाठ प्रकाशकों द्वारा बदलता रहा है। उनके उपन्यास ‘गो-दान’ तक के शीर्षक को बदल कर ‘गोदान’ बना दिया गया। इसमें कुछ रचनाओं की पांडुलिपि से भी मूल पृष्ठ दिये गये हैं। इसका पहला खंड प्रेमचंद के जीवन, साहित्य तथा विचार पर है, जो किसी रचनावली में पहली बार दिया जा रहा है। इसमें हर खंड की अलग अलग भूमिकाएँ हैं, जो उसकी मौलिकता है। यह रचनावली प्रेमचंद को मूल रूप में सुरक्षित करती हैं। ये सब इसके महत्व के आधार हैं। मैंने इस काम को पूरा करके अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव किया और सरस्वती को धन्यवाद दिया कि उसकी कृपा से यह काम हो सका। इसके साथ ही ‘प्रेमचंद विश्वकोश’, दो खंड भी प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हो गया है।
मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य के प्रति आपका लगाव इतना प्रगाढ़ कैसे हुआ? आपने पूरा जीवन ही उन्हें समर्पित कर दिया। विस्तृत रूप में जानना चाहता हूँ।
प्रेमचंद पर मेरे पागलपन का इतिहास 1963-64 से शुरू होता है, जब डा. नगेन्द्र ने मुझे ‘प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्पविधान’ पर पीएच.डी. करने का आदेश दिया। मैं जयशंकर प्रसाद पर शोध करना चाहता था, लेकिन उनके आदेश पर मुझे प्रेमचंद को अपनाना पड़ा। यह नियति का ही खेल था और प्रेमचंद के शोधकर्म के बाद तो मैं प्रेमचंद का ही होता चला गया। प्रेमचंद जन्मशताब्दी पर मैंने एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया और विभिन्न कार्यक्रमों से मेरे प्रेमचंद–संबंधी लेख सारे देश में पहुंचे और प्रेमचंद पर मेरी किताबें छपने लगीं। भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता ने ‘प्रेमचंद विश्वकोश’ को पुरस्कृत किया और राष्ट्रपति जैलसिंह पुरस्कार देने के लिए कोलकाता आये। मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि मेरे पुरस्कार का प्रशस्ति पाठ विष्णुकांत शास्त्री ने किया था। इसके बाद भारतीय ज्ञानपीठ से प्रेमचंद के अप्राप्य साहित्य पर मेरी दो किताबें आईं और जैनेन्द्र, प्रभाकर माचवे, विष्णु प्रभाकर, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, गोपालराम आदि अनेक विद्वानों ने मेरे प्रेमचंद संबंधी कार्य की प्रशंसा की। इससे मुझे ऊर्जा मिली और विश्वास पैदा हुआ। इससे देश विदेश में मेरे प्रेमचंद संबंधी नये शोधकार्य की खूब चर्चा हुई और मैं पूर्णतः समर्पित होकर काम करता रहा और इसी में आधी सदी बीत गई।
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश से संबंध रखने वाले युवा लेखक मु. हारून रशीद खान लंबे अरसे से रचनाकर्म में संलग्न हैं। विशेषतः साक्षात्कारों में उनकी रुचि भी है और विशेषज्ञता भी। ‘सृजनपथ के पथिक’ और ‘मेरी गुफ्तगू अदीबों से है’ शीर्षक से साक्षात्कारों की दो पुस्तकें और अन्य कई संपादित और मौलिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उन्होंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित ‘कुबेरनाथ राय रचनावली’ का भी सम्पादन किया है। उनसे मोबाईल नंबर : 9889453491 और ई-मेल : mdharoon.khangzp786@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।