बिहार के आरा जनपद के एक गाँव बैसाडीह में जन्मे हरे प्रकाश उपाध्याय सुपरिचित युवा कवि हैं। दिल्ली में कुछ समय फ्रीलांसिंग और कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन सहयोग करने के बाद वे पत्रकारिता के सिलसिले में लखनऊ पहुँचे और कुछ समय नौकरी के बाद फ्रीलांसिंग व ‘मंतव्य’ (साहित्यिक पत्रिका) के संपादन-प्रकाशन में संलग्न रहे। इन दिनों वे ‘रश्मि प्रकाशन’ नामक संस्था के माध्यम से पुस्तक-प्रकाशन की दुनिया से वाबस्ता हैं। 2009 में भारतीय ज्ञानपीठ से उनका पहला कविता संग्रह ‘खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं’, फिर वही से 2014 में पहला उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ तथा 2021 में कविता संग्रह ‘नया रास्ता’ प्रकाशित हो चुका है। उन्हें कविता के लिए अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार (दिल्ली), हेमंत स्मृति सम्मान (मुंबई), कविता-कथा के लिए युवा शिखर सम्मान (शिमला), साहित्यिक पत्रकारिता के लिए स्पंदन सम्मान (भोपाल) और उपन्यास के लिए ज्ञानपीठ युवा लेखन पुरस्कार (दिल्ली) से नवाज़ा जा चुका है।
इन दिनों हरे प्रकाश अपनी अलहदा किस्म की कविताओं के लिए सुर्खियों में हैं। समकालीन हिन्दी कविता के वर्तमान शिल्प और भाषा से विद्रोह करते हुए बेहद सादा अंदाज़ में वे हमारे आसपास की दुनिया के उन लोगों के दुख-सुख का बयान अपनी कविताओं कर रहे हैं, जो दिखाई देते हुए भी अधिकतर लोगों के लिए अदृश्य हैं। ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं उनकी कुछ ताज़ा कविताएँ :
ये जो दोस्त हैं
ये दोस्त हैं, जो मुझे सह लेते हैं
इनके प्यार ने ऐसा बिगाड़ा है कि
जो मन में आये कविता में कह लेते हैं
जानता हूँ
कविता मेरे बूते की नहीं है
कविता के नाम पर जो लिखता हूँ
वह बस मन की बतकही है
आधा ग़लत आधा सही है
दोस्त हैं जो बहकने पर टोक देते हैं
लड़खड़ाकर चलता हूँ
तो अपने ही घर में रोक लेते हैं
गाने लगता हूँ बेसुरा ही सही
तो भी पीठ ठोक देते हैं
दोस्त हैं जिनसे मिलने
जब न तब घर से निकलता हूँ
ज़रा सी बात पर भी इनसे झगड़ता हूँ
इन्हें क्या पता कि अपनी
हर गुस्ताख़ी पर अकेले में कान पकड़ता हूँ
दोस्त हैं
जिन्हें हक़ से कंधे से पकड़ता हूँ
ज़रा सी ऊंच-नीच पर
कविता में भी रगड़ता हूँ
ये और बात है कि इनके ही बल पर
मैं जगह-कुजगह बेवजह भी अकड़ता हूँ
दोस्तों के होने से दिल्ली है भोपाल है कोलकाता है
अन्यथा मानचित्र में मुझे क्या ही समझ आता है!
अजीब आदमी
हमारे बीच का ही वह आदमी था
आदमी जैसा आदमी था
लोगों ने कहा – अजीब आदमी
न धर्म मानता था
न जाति मानता था
लोगों ने कहा – अजीब आदमी
जब सब हँसते थे,
वह चुप था
लोगों ने कहा – अजीब आदमी
जब सब चुप थे
वह बोल पड़ा
लोगों ने कहा – अजीब आदमी
जब सब भाग रहे थे
वह धीरे-धीरे चलता था
लोगों ने कहा- अजीब आदमी
जंगल कटते देख
वहाँ बड़े-बड़े महल बनते देख
नदियों के जल को बंधते देख
सबने विकास कहा
उसने उसे विनाश कहा
लोगों ने कहा – अजीब आदमी
उसने नहीं किया तमगे स्वीकार
लाशों पर रख पैर
आगे बढ़ने से किया इंकार
लोगों ने कहा – अजीब आदमी
दरअसल वह बच्चा था
जो राजा को नंगा कहता था
लोगों ने कहा – अजीब आदमी!
सोनू कबाड़ वाला
आया है सोनू कबाड़ लेने, है छब्बीस साल का
कबाड़ का काम में जुटा, रहा जब चौदह साल का
कबाड़खाने के मालिक से रिश्ता बताता ननिहाल का
पूछने पर कहने लगा एक्सपीरियंस है बारह साल का
टूटा हुआ ठेला कभी पैदल कभी चढ़कर चलाता है
दे दो रद्दी-सद्दी लोहा-लक्कड़ आवाज़ लगाता है
हरदम तो उसको देखता हूँ मसाला चबाता है
कह रहा कि रोज़ पाँच-छह सौ कमाता है
भैया! दो सौ तो खाने-पीने में ही उड़ जाता है
बाबू बीमार थे, मर गये वे कल
आज ही आया काम पर निकल
कह रहा, उनसे बहुत मिलता था बल
अब तो टूट गया, हो गया निर्बल
मालिक से उधार लेकर बस लेगा वो धर
बलरामपुर में है टूटा हुआ सा घर
कमाते सब मिल इतना कि पेट जाए भर
कभी कुछ गाँव में काम, कभी आते शहर
यहाँ जहाँ कबाड़ रखते हैं
वही बगल में रहते हैं
आपके कबाड़ पर पलते हैं
अच्छा भैया! बुलाइएगा फिर, चलते हैं!
मनमर्जी की पुड़िया
लखनऊ मेट्रो में गार्ड लगी हूँ रीना नाम है मेरा
ड्यूटी करते पूरा हुआ है तीन महीना मेरा
सैंया कोतवाल है
वह दिल्ली के थाने में बहाल है
कहता है राजा
नौकरी छोड़कर आ जा
भैया यह नौकरी बहुत मेहनत से पाई है
क्या बताऊं कि क्या नहीं गंवाई है
जब मेरी पहली पगार खाते में आई है
मुझे लगा कि मैंने लाल किले पर विजय पाई है
पिया प्यारा है
उसका सब कुछ हमारा है
पर समझता कि मैंने भी
क्या कुछ नहीं इस सपने पर वारा है
मैं पिया की हूँ
पिया मेरा है
पर यह जो सपना है
एक कमरे का मेरा डेरा है
इसने भी तो प्यार से मुझे घेरा है
मेट्रों में मैं हूँ गार्ड
माना जीवन है मेरा हार्ड
पर जब मैं किसी को रोकती हूँ
किसी बात पर किसी को टोकती हूँ
तो भैया मैं भी कुछ तो होती हूँ
मैं अंदर से बहुत ख़ुश होती हूँ
सैंया जी बलम जी राजा जी
मुझे भी ज़रा समझना जी
तुम हो कोतवाल
तुम्हारा जलवा बवाल
पर मेरे आगे नहीं गलती है किसी की दाल
मैं मनमर्जी की गुड़िया
हूँ बवाल की पुड़िया
मैं तो नहीं पहननेवाली हाथों में चूड़ियाँ!
शंभु प्रजापति
जबसे पास आई है दिवाली
उड़ते हुए चल रहे शंभु प्रजापति और उनकी घरवाली
रात दिन छाती पर माटी उठाये
घूम रहा है चाक
बहुत बिजी है, दिखता नहीं है आजकल कभी खाली
नाच रहा है चाक मिट्टी नाच रही है
बिटिया भी ख़ुश है, वह कितनी उम्मीदों से ताक रही है
मिट्टी को पहले पानी में मिलाया गया
चाक पर चढ़ाकर उसको नचाया गया
फिर आवे में उसको पकाया गया
अब निखर आये हैं मिट्टी के अंग
उस पर लगा देंगे ये ज़रा सा रंग
फिर हाट में ये जाएगी शंभु के संग
ये जो हैं दिये खिलौने गुल्लक कलश
एक-एक में भरा है इन्होंने हाथों से रस
लोग बाज़ार में इन्हें बजा-बजा कर देखेंगे
उलट-पलट कर परखेंगे
जो भी बताएंगे ये दाम, लोग महंगा ही कहेंगे
कह रहे शंभु भाई, ये ही परब त्यौहार दो पैसे कमा लेते हैं
मौक़े-कुमौक़े के लिए अठन्नी-रुपैया बचा लेते हैं
बाकी तो हरदम विधाता परीक्षा ही लेते हैं
कभी पानी से खिलौने गला देते हैं
कभी गरमी से घड़े चटका देते हैं
अक्सर तो चाक पर चढ़ाकर हमें ही नचा देते हैं
आवें में हमें भी पका देते हैं
शादी-ब्याह मरनी-जीनी
शंभु भाई का जीवन मशीनी
कह रहे चिंता से भर, अब हमारे भी दिन जा रहे
प्लास्टिक के खिलौने और बरतन चढ़े आ रहे
तय किया है कि अब छोड़ेंगे गांव
देख रहे हैं शहर में कोई अच्छा सा ठांव
रिक्शा चला लेंगे फल का ठेला लगा लेंगे
लग गया चांस तो किसी फैक्ट्री में लग के कमा लेंगे
यहाँ से तो बेहतर जिनगी की गाड़ी चला लेंगे।
संपर्क : महाराजापुरम, केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास, कृष्णानगर, लखनऊ-226023 ; मोबाइल : 8756219902
हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएं कबीर की साखी और बानी की तरह लगती हैं,छंद विधान को पूरी तरह अपना लें तो यश मालवीय की तरह कविता ( नवगीत ) लिखने लगेंगे ।
इनकी कविताओं में जीवनानुभाव भरी पड़ी हैं,जो बरबस ध्यान आकृष्ट करती हैं।
हरेप्रकाश की एक अलग बानगी है,अलग अंदाज़ है ।
बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।