उत्तर प्रदेश के अवध अञ्चल के जनपद प्रतापगढ़ में जन्मे अरुण आदित्य न केवल हिन्दी कविता का बल्कि हिन्दी पत्रकारिता का भी जाना-माना नाम हैं। उनकी कविताएं लोकजीवन में मौजूद प्रसंगों से अपना काव्य-तत्त्व अर्जित करती हैं। उनके कवि की विशिष्टता है कि कविताएं आपको केवल वहीं नहीं स्पर्श करतीं जहां उनमें भावना-तत्त्व की प्रधानता है, अपितु जहाँ सूक्ष्म व्यंग्य है, वहाँ भी वे पाठक को संवेदित करते हुए कई बार अवाक और स्तब्ध कर देती हैं। उनकी विरल काव्य-भाषा और भंगिमा के कारण उनकी कविताओं को अलग से पहचाना जा सकता है। उनकी प्रकाशित कृतियां हैं- ‘रोज ही होता था यह सब’, धरा का स्वप्न हरा है (कविता संग्रह) और ‘उत्तर वनवास’ (उपन्यास)। उन्हें मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के ‘दुष्यन्त पुरस्कार’, अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, बेकल उत्साही सम्मान, आयाम सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। उनकी रचनाएं हंस, पहल, वसुधा, पल-प्रतिपल, वागर्थ, साक्षात्कार, कथादेश, बया आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज़’ जैसे महत्वपूर्ण संकलनों में भी उनकी कविताएं शामिल की गई हैं। उनकी कुछ कविताएं पंजाबी मराठी और अंग्रेज़ी में अनूदित हुई हैं। उनकी कुछ नई कविताएँ ‘सबद’ पर प्रस्तुत हैं :
आश्रय
एक ठूंठ के नीचे दो पल के लिए रुके वे
फूल-पत्तों से लदकर झूमने लगा ठूंठ
अरसे से सूखी नदी के तट पर बैठे ही थे
कि लहरें उछल-उछलकर मचाने लगीं शोर
सदियों पुराने एक खंडहर में शरण ली
और उस वीराने में गूंजने लगे मंगलगान
भटक जाने के लिए वे रेगिस्तान में भागे
पर अपने पैरों के पीछे छोड़ते गए
हरी-हरी दूब के निशान
थक-हारकर वे एक अंधेरी सुरंग में घुस गए
और हजारों सूर्यों की रोशनी से नहा उठी सुरंग
प्रेम एक चमत्कार है या तपस्या
पर अब उनके लिए एक समस्या है
कि एक गांव बन चुकी इस दुनिया में
कहां और कैसे छुपाएं अपना प्रेम ?
अन्वर्थ
चित्र बना रही है वह
या चित्र बना रहा है उसे
अभी-अभी भरा है उसने
एक पत्ती में हरा रंग
और एक हरा-भरा उपवन
लहलहाने लगा है उसके मन में
एक तितली के पंख में
भरा है उसने चटख पीला रंग
और पीले फूलों वाली स्वप्न-उपत्यका में
उड़ने लगी है वह स्वयं
उसे उड़ते देख खिल उठा है कैनवास
अब वह भर रही है आसमान में नीला रंग
और कुछ नीले धब्बे
उभर आए हैं उसकी स्मृति में
अब जबकि भरने जा रही है वह
बादल में पानी का रंग
आप समझ सकते हैं
कि उसकी आँखों को देख
सहम-सा क्यों गया है कैनवास।
डर
किसी उदास दोपहर में
बिल्कुल बुझे मन के साथ हम बोर हो रहे होते हैं
थोक में आए ग्रीटिंग कार्ड्स को देखकर
कि अचानक हमारे हाथ में आता है एक ऐसा कार्ड
जिसे देखने के बाद हम ठीक वही नहीं रह पाते
जो इसे देखने से पहले थे
कितना अद्भुत है यह कार्ड
कि एक अच्छे ब्लॉटिंग पेपर की तरह
सोख लेता है सारी ऊब और उदासी
इसमें छपे फूलों की खुशबू
कार्ड से बाहर निकल तैरने लगती है हवा में
शिशिर ऋतु में अचानक आ जाता है बसंत
हम भूल जाते हैं सारी चिड़चिड़ाहट
आ जाती है इतनी उदारता
कि अपनी गलती न होने के बावजूद
माफ़ी मांग लेते हैं
कुछ देर पहले झगड़ चुके सहकर्मी से
इतना विशाल हो जाता है हृदय
कि वाकई क्षुद्र लगने लगती हैं अपनी क्षुद्रताएं
इतना कुछ बदल जाता है अचानक
कि ग्रीटिंग कार्ड भेजने की औपचारिकता के खिलाफ
सदा रहा आया मैं
सोचने लगता हूं
कि दुनिया के हर आदमी को
मिलना ही चाहिए एक ऐसा कार्ड
सोचता हूं
और अपने इस सोच पर डर जाता हूं
कि कार्ड बनाने वाली कोई कंपनी
मेरी कविता की इन पंक्तियों को
अपने विज्ञापन का स्लोगन न बना ले
और बाद में मैं सफाई देता फिरूं
कि कार्ड बेचने वाले की नहीं
भेजने वाले की ख़ुसूसियत बयान करना चाहता था मैं।
इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं लोग
कुछ दिनों पहले मिला मुझे एक विचार
आग का एक सुर्ख गोला
सुबह के सूरज की तरह दहकता हुआ बिलकुल लाल
और तब से इसे दिल में छुपाए घूम रहा हूं
चोरों, बटमारों, झूठे यारों और दुनियादारों से बचाता हुआ
सोचता हूं कि सबके सब इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं
उस दोस्त का क्या करूं
जो इसे गुलाब का फूल समझ
अपनी प्रेमिका के जूड़े में खोंस देना चाहता है
एक चटोरी लड़की इसे लाल टमाटर समझ
दोस्ती के एवज में मांग बैठी है
वह इसकी चटनी बना मूंग के भजिए के साथ खाना चाहती है
माननीय नगर सेठ इसे मूंगा समझ अपनी अंगूठी में जडऩा चाहते हैं
ज्योतिषियों के अनुसार मूंगा ही बचा सकता है उनका भविष्य
राजा को भी जरूरत आ पड़ी है इसी चीज की
मचल गया है छोटा राजकुमार इसे लाल गेंद समझ
लिहाजा, राजा के सिपाही मेरी तलाश में हैं
और भी कई लोग अलग-अलग कारणों से
मुझसे छीन लेना चाहते हैं यह आग
हिरन की कस्तूरी सरीखी हो गई है यह चीज
कि इसके लिए कत्ल तक किया जा सकता हूं मैं
फिर इतनी खतरनाक चीज को
आखिर किसलिए दिल में छुपाए घूम रहा हूं मैं
दरअसल मैं इसे उस बुढिय़ा के ठंडे चूल्हे में डालना चाहता हूं
जो सारी दुनिया के लिए भात का अदहन चढ़ाए बैठी है
और सदियों से कर रही है इसी आग का इंतजार।
शोक ... अशोक !
मैं ही था वह बेफिक्र नौजवान
जिसे गोलियों से भून दिया गया
नोवा संगीत समारोह में थिरकते हुए
पर मैं वहां नहीं मरा
कि मुझे फिर से चिथड़े-चिथड़े होना था
गाजा के अस्पताल में
मैं अभी भी नहीं मरा हूं
कि मासूम बच्चों के क्षत-विक्षत शव समेटते हुए
मुझे मरना है बार-बार
कभी इस पार, तो कभी उस पार
सीमाओं से परे मेरा शोक
बुदबुदाता है, अशोक… अशोक !
कलिंग…कलिंग, अशोक… अशोक !
संपर्क : 202, ज्ञानखंड-1, फ्लैट-एफ 2,इंदिरापुरम, गाजियाबाद (उ.प्र. ), पिन-201014, मोबाइल- 9873413078, ईमेल : adityarun@gmail.com
अरुण की कविताएँ पाठक के मन में जगह बनाती हैं और अपना स्थायी भाव दर्ज कर देतीं हैं । इन कविताओं में समकालीन कविता मुहावरा प्रखर है । नाजुक भावों से जटिल जीवन को अभिव्यक्त करने में सफल कविताएँ पढ़वाने के लिए सबद का आभार ।
धन्यवाद प्रदीप।
इन कविताओं को पढ़ना, अपने समय के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर से रू-ब-रू होना है। ये कविताएँ अपने शिल्प से चौंकाती हैं। अरुण जी की कविताओं से पूर्व परिचित जानते हैं कि बिना लेग लपेट के भी वे कैसे अपनी कविताओं से हतप्रभ करते रहे हैं। सरलता उनके जीवन का हिस्सा है, जो कविताओं में भी झलकता है। सरल शब्दों में गंभीर बात और सिहरन पैदा करने का नायाब कौशल उनकी कविताओं में है। धन्यवाद सबद।
धन्यवाद स्वरांगी।